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महाभद्रप्रतिमा, दो दिन के प्रमाण वाली एक भद्रप्रतिमा, दस दिन के प्रमाण वाली एक सर्वतोभद्र प्रतिमा, दो सौ उन्तीस छठ्ठ और बारह अट्टम किये । सभी तपश्चर्या में अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के
जल भी नहीं लिया । जब जो प्रासुक भिक्षा
तब भी वापरते ।
प्रभु ने बारह
आहार का त्याग किया । पारणा का प्रसंग आ जाता मिलती, वह भी एक ही बार वर्ष छह मास और पन्द्रह दिन में मात्र तीन सौ उनपचास पारणे ही किये । न नित्य और न एकान्तर में भी पारणे किये । इस तरह उत्तम आराधना करते हुए ग्रात्मध्यान में निमग्न रह कर प्रभु महावीर महीतल पर विचर रहे हैं । साढ़े बारह वर्ष और पन्द्रह दिन बीत जाने के बाद, ग्रीष्मकाल में वैशाख सुदी दशमी के दिन, पूर्वगामिनी छाया आते हुए, अन्तिम पोरिसी में सुव्रत नाम के दिन में, विजय मुहूर्त्त में, जुम्भिक ग्राम नगर के बाहर के विभाग में, ऋजुवालिका नदी के उत्तरी तट पर, व्यावृत्त नामक
जीर्ण व्यन्तर के चैत्य के समीप, श्यामक नामक गाथापति के क्षेत्र में, शालवृक्ष के नीचे, गोदोहिका की माफिक उत्कटिक ग्रासन में, सूर्य के ताप द्वारा प्रतापना लेते हुए, चौविहार छठ्ठ की तपश्चर्या वाले तथा शुक्ल ध्यान के मध्य भाग में वर्त्तते हुए ऐसे श्रमरण भगवान् महावीर परमात्मा
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