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________________ स्तवन के (झुमखडानी देशी में) चौथो गणधर चोंपशुरे , वन्दं चित्तधरी भाव ; सलुणे साजनां, कोल्लाग सन्निवेशे थयो रे, पाम्यो भव जल नाव, सलुणे० ॥१॥ धनमित्र द्विज वारुणी प्रिया रे, नंदन दिये पाणंद सलुणे; श्रवण नक्षत्र जनमियो रे, भारद्विज गोत्र अमंद, सलुरणे० ॥२॥ वरस पचास घरे रह्या रे, बार छऊमत्थ पर्याय सलुरणे; वरस अढार केवली रे, वरस एंशी सवि प्राय, सलुणे पांचशे शिष्य कंचन वने रे , सम्पूर्ण श्रुतलब्धि सलुणे ; मास भक्त राजगृहे रे, वीर थके लह्या सिद्धि, सलुणे० पढम संघयण संस्थान छे रे, वीर तरणो ए शिष्य सलुरणे; ज्ञानविमल तेजे करी रे , दीये अधिक जगीश सलुणे० ( ११२ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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