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ॐ चतुर्थ गणधर श्रीव्यक्तजी का देववंदन
चैत्यवन्दन पंच भूतनो संशयी , चौथो गरिण व्यक्त ; इन्द्रजालपरे जग कहयो , तो किम तस शक्त ॥१॥ पृथिवी पाणी देवता , इम भूतनी सत्ता ; पण अध्यातम चिन्तने , नहि तेहनी ममता ॥ २॥ इम स्याद्वाद मते करी ए , टाल्यो तस सन्देह ; ज्ञानविमल जिन चरणशुं , धरता अधिक स्नेह ॥ ३ ॥
* स्तुति *
( मालिनीवृत्त ) चौथो गणधर व्यक्त , धर्म-कर्मे सुशक्त ; सुर नर जस भक्त , सेवता दिवस नक्त ; जिनपद अनुरक्त , मूढता विप्रमुक्त ; कृत करम विमुक्त, ज्ञानलीला प्रसक्त ॥ १॥
(शेष तीन स्तुतियाँ प्रथम गणधर के देववन्दन की भाँति कहनी)।
( १११ )