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होती है, उनकी वाणी अमृतधारा के समान मानव-हृदय में प्रवाहित होती है जिससे अनन्त जन्मों की मोहनिद्रा विलुप्त हो जाती है और जीवन नवजागरण के अरुणोदय को निहारकर प्रानन्द सागर की उत्ताल तरंगों में अठखेलियाँ करता हुआ जिनेश्वरदेव की भक्ति में रंग जाता है। . 'श्रीगणधरवादकाव्यम्' की सरसता में अभिवृद्धि परमपूज्य ग्यारह गणधरों की प्रशस्ति में रचित बहुश्रुत मुनि भगवन्तों और कवि मनीषियों की स्तुतियों, चैत्यवन्दन-स्तवन-गीतों के समावेश के कारण विशेष रूप से हुई है। इससे भक्ति की पयस्विनी जनमानस को आनन्दोल्लास से प्राप्लावित कर देती है। दर्शन की रुक्षता सरसता की चाशनी में पगकर मधुरतम बन गई है।
जैनाचार्य इस युग के महान् साहित्य-सर्जक हैं। वे लोकमंगल की पुनीत भावना से साहित्य-साधना में प्रविष्ट हुए हैं। उनके अन्तर्मन का उल्लास जिनेन्द्रभक्ति की सहस्र धाराओं में उनकी रचनात्रों में प्रवाहित है। जो पुण्यशाली पाठक इन रचनाओं का श्रवण-पठन करता है, वह प्रसन्नचित्त वीतराग के चरण-कमलों में समर्पित हो जाता है- मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे।
पूज्य आचार्यदेव की लेखनी अपनी रचनाओं द्वारा विश्व-मंगल के असंख्य दीप प्रज्वलित करती रहे, जिनके प्रकाश में मोहप्रसित जीव अज्ञानांधकार से ऋण पा सकें।
पासोज सुद १० [विजयादशमी] शुक्रवार दिनांक २-१०-८७
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चरण-चञ्चरीक
जवाहरचन्द्र पटनी एम.ए.(हिन्दी, अंग्रेजी) बी.टी.
फालना (राजस्थान)
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