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अनवरत रच रहे हैं। 'श्री गणधरवाद काव्यम्' से उनकी हिन्दीशैली का एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है।
'पहले गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम ने सम्पूर्ण ६२ वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके श्री महावीर परमात्मा के निर्वाण के बारह वर्ष बाद मगध देश की राजगृही नगरी के वैभारगिरि पर सकल कर्म का क्षय करके निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।
जैनाचार्य महाकवि श्रीमद् सुशीलसूरिजी ने संस्कृत पद्य का सरल संस्कृत में गद्यानुवाद किया है। एक झलक देखिए
विश्ववन्द्यो विश्वविभुः श्रीसिद्धार्थनृपकुलदीपकस्त्रिशलादेवीनन्दनः काश्यपगोत्रीयः वर्तमानशासनाधिपतिश्चरमतीर्थङ्करो देवाधिदेवः श्रमण भगवान् श्री महावीर.।"
दर्शनविषयक रुक्षता को सरस शैली में निरूपित करना दुष्कर है, परन्तु यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि पूज्यपाद जैनाचार्य ने रुक्ष विषयों को अत्यन्त सरसता से उद्घाटित किया है।
प्राचार्यश्री की दुर्बल देहयष्टि में दधीचि ऋषि की वज्रता देखकर यह सहज अनुमानित हो जाता है कि उनकी तेजस्विता उनकी रचनाओं में अनेकविध उद्भासित हई है। उनकी कोमलता के दर्शन उनकी सौम्य आकृति में ही नहीं होते वरन् उनके साहित्य में शाश्वत सम्पदा के रूप में होते हैं।
उनका 'श्रीगणधरवादकाव्यम्' अन्य साहित्यिक एवं दार्शनिक रचनाओं की तरह स्वच्छ दर्पण है जिसमें उनके जीवन में विद्यमान मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का निर्मल प्रतिबिम्ब झलकता है। उनके दर्शन से नयनों को तृप्ति
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आठ
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