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श्री तारंगा तीर्थ
लगभग वीर नि. की छठी शताब्दी (विक्रम की पहली शताब्दी के पूर्व का है।)
विशिष्टता इस श्वेताम्बर मन्दिर के दखिण तीथोधिराज 8 श्री अजितनाथ भगवान, दिशा में लगभग 1.0 कि. मी. दूर कोटिशिला स्थल है पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 2.75 मी. (१ फुट) जो कि इस पर्वत की ऊँची टेकरी पर है । कहा जाता (श्वेताम्बर मन्दिर) ।
है यहाँ अनेकों मुनिगण घोर तपश्चर्या करके मोक्ष श्री आदीश्वर भगवान (दिगम्बर मन्दिर) । सिधारे हैं । दिगम्बर मान्यतानुसार यहाँ से साढ़े तीन तीर्थ स्थल 88 तारंगा हिल रेलवे स्टेशन से क्रोड़ मुनि मोक्ष गये हैं जिनमें प. पूज्य मुनि श्री लगभग 5 कि. मी. (3 मील) दूर पहाड़ पर । सागरदता महाराज व मुनिश्री वरदता महाराज मुख्य प्राचीनता जैन ग्रंथों में इसका प्राचीन नाम
हैं। 230 फुट लम्बे चौडे चौक के मध्य भाग में स्थित तारउर, तारावरनगर, तारणगिरि, तारणगढ़ आदि दिया
यह श्वेताम्बर मन्दिर 142 फुट ऊँचा, 150 फुट लंबा है । वीर नि. सं. 1710 (विक्रम संवत् 1241) में व 100 फुट चौड़ा है । इस मन्दिर का शिखर आचार्य श्री सोमप्रभसूरिजी ने 'कुमार पाल प्रतिबोध'
27.5 मी. (करीब 90 फुट ऊँचा) व रंगमण्डप नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें वीर नि. की छठी
अतिविशाल है। मन्दिर का शिल्प प्राचीन व शताब्दी (विक्रम की पहली शताब्दी) में श्री बप्पुटाचार्य
मनमोहक है । के उपदेश से यहाँ के राजा वत्सराय ने जैन धर्म अन्य मन्दिर पहाड़ पर इस मन्दिर के अंगीकार करके शासनाधिष्ठात्री श्री सिद्धायिकादेवी का अतिरिक्त 4 और श्वेताम्बर मन्दिर व 5 दिगम्बर मन्दिर यहाँ बनवाने का उल्लेख है, परन्तु बीच के
मन्दिर हैं । मुख्य श्वेताम्बर मन्दिर के दक्षिण तरफ इतिहास का उल्लेख नहीं है । हो सकता है कालक्रम
लगभग 1.0 कि. मी. दूर पहाड़ की ऊँची टेकरी पर से इस बीच यह तीर्थ विच्छेद रहा हो विर्तमान श्वेताम्बर
कोटिशिला स्थल है जो अनेकों मुनियों की तपोभूमि है, मन्दिर जैनाचार्य शासनप्रभावक श्री हेमचन्द्रसूरिजी द्वारा
जिसे यहाँ की पहली टूक कहते हैं । मोक्षबारी नामक प्रतिबोधित गुर्जर नरेश श्री कुमारपाल राजा द्वारा वीर
दूसरी ट्रॅक यहाँ से पूर्व दिशा में 1.0 कि. मी. दूर है नि. सं. 1690 (विक्रम सं. 1221) में निर्माणित किये
जिसे पुण्यबारी भी कहते हैं । यहाँ देरी में अजितनाथ का उल्लेख मिलता है । वीर नि. सं. 1753 (विक्रम
प्रभु आदि की प्राचीन चरण पादुकाएँ हैं । देरी में संवत् 1284) के फाल्गुन शुक्ला 2 को संघपति श्री
परिकरयुक्त भगवान की मूर्ति है । परिकर प्राचीन है वस्तुपाल द्वारा श्री नागेन्द्र गच्छाचार्य श्री विजयसेनसूरिजी
और उसकी गादी पर विक्रम सं. 1235 वैशाख शुक्ला के हार्थों इस जिनालय में दो आलों में श्री आदिनाथ
तृतीया का लेख उत्कीर्ण है । तीसरी सिद्धशिला ट्रॅक है प्रभु की दो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख अब
जो यहाँ से वायव्य दिशा में आधा मील दूर है । यहाँ भी इस मन्दिर में सुरक्षित है। ये दोनों प्रतिमाएँ तो
पर देरी में चौमुखजी एवं अतिजनाथ भगवान की चरण विद्यमान नहीं हैं, पर शिलालेख वाले दोनो आसन
पादुकाएँ है । उनपर विक्रम सं. 1836 का लेख है । मन्दिर में मौजूद हैं । वीर नि. सं. 1948 (विक्रम
कला और सौन्दर्य पहाड़ पर का अनूठा संवत 1479) में ईडर निवासी श्री गोविन्द श्रेष्ठी द्वारा प्राकृतिक दृश्य व पुण्य भूमि का शुद्ध वातावरण आत्मा आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के सुहस्ते इस तीर्थ का को परम शान्ति देता है । श्वेताम्बर मन्दिर का चार उद्धार किये जाने का उल्लेख है। अंतिम उद्धार वीर नि. मंजिल में चन्दन वर्ण पाषाण का कलात्मक नयनाभिराज सं. 2111 (विक्रम संवत् 1642) में आचार्य श्री गगनचुम्बी शिखर अत्यन्त विशाल चौक के बीच विजयसेनसूरिजी के हाथों करवाये जाने के लेख हैं । विशाल रंग मण्डप के साथ दिव्य लोक जैसा प्रतीत इनके अतिरिक्त तेरहवीं व चौदहवीं शताब्दी में इस होता है। कहा जाता है राजा कुमारपाल ने राणा मन्दिर में और जिन बिम्ब प्रतिष्ठित करवाने व गोखले अर्णोराज पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में यह आदि निर्माणित करवाने के उल्लेख भी मिलते हैं । मन्दिर बनवाया था और मन्दिर का शिखर 32 मंजिल इसलिए इन सबसे यह सिद्ध होता है कि यह तीर्थ का बनवाया था। हो सकता है जीर्णोद्धार के समय
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