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श्री पंचासरा पार्श्वनाथ भगवान पाटण
विहार, त्रिभुवन विहार, कुमार विहार, आदि भव्य मन्दिर बने । इनके अलावा भी सैकड़ों मन्दिर बने ।
कालक्रम से विक्रम सं. 1353 से 1356 के समय अलाउद्दीन के सेनापति के हाथों इस नगरी का विनाश होना शुरु हुआ । अनेकों मन्दिर नष्ट हुए । जाहोजलालीपूर्ण इस नगरी का पतन हुआ । पं. श्री कल्याणविजयजी द्वारा किये शोध मुजब विक्रम सं. 1370 के आसपास फिर से नया पाटण बसा व अनेकों मन्दिरों का फिर से निर्माण शुरु हुआ । खरतरगच्छ संबंधी विधिचैत्य मुजब श्री जिनकुशलसूरिजी के सुहस्ते विक्रम सं. 1379 से 1381 के अन्तर्गत अनेकों जिन मन्दिरों
व आचार्य गुरु मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ हुई । वि. सं 1417 से 1422 तक भी अनेकों मन्दिरों की प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है । विक्रम सं. 1648 में श्री ललितप्रभसूरिजी द्वारा रचित पाटण चैत्य परिपाटी में उस समय विशाल जैन मन्दिरों की संख्या 101 व देरासरों की संख्या 99 बताई है। इन मन्दिरों में हजारों प्रतिमाएँ थीं । जिनमें 38 अजोड़ रत्नों की प्रतिमाएँ भी थीं ।
विक्रम सं. 1729 में श्री हर्षाविजयजी द्वारा रचित चैत्य परिपाटी में 95 विशाल मन्दिर व 500 देरासर बतायें हैं। आज भी यहाँ सैकड़ो मन्दिर विद्यमान है ।
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