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ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति
प्राप्ति को योगकला माना गया। इसमें दिया है-यम, नियम व नैतिक साधना का महत्त्व तथा शरीर पर नियंत्रण और प्राणायाम पर बल।
इनके सिवाय दार्शनिक धाराओं में मीमांसकों (पूर्व व उतर) के निश्चयात्मवाद, शंकराचार्य के अद्वैतवाद, रामानुज के ईश्वरवाद, शैव, शाक्त तथा परवर्ती वैष्णवों की ईश्वर-जगत् विवेचना और आधुनिक काल के श्री अरविन्द के सर्वांग दर्शन का नाम भी गिनाया जा सकता है। ज्ञान-दर्शन विकास की पृष्ठभूमि में मानव का सामाजिक विकास : __ भारत के तत्कालीन ज्ञान व दर्शन के विकास की तुलना में मानव का सामाजिक विकास उतना प्रखर नहीं रहा, बल्कि समग्र जन समुदाय की दृष्टि से तो कहा जा सकता है कि उच्च वर्ण के सिवाय अन्य वर्गों के लोग तो सामाजिक दृष्टि से काफी पिछड़े और उपेक्षा के पात्र बने रहे। सच तो यह है कि तब व्यक्तिवाद की ही प्रमुखता थी अर्थात् जो व्यक्ति या तो शासन व्यवस्था से जुड़े थे या राजा, सामन्त आदि अथवा धर्मोपदेश व क्रियाकांड से जुड़े थे ब्राह्मण, पुरोहित आदि-वे ही कर्ता धर्ता बने हुए थे। बहुसंख्यक समुदाय इन्हीं का कृपाकांक्षी बनने का यत्न किया करता था। वास्तविकता यह थी कि यह बहुसंख्यक समुदाय जिह्वाहीन जैसा था यानी कि राज्य प्रबंध या सामूहिक कार्यों में इनकी कोई आवाज नहीं थी। तब तक यह सामाजिक दृष्टिकोण भी पैदा नहीं हुआ था कि इस बहुसंख्यक समुदाय की अशिक्षा, निर्धनता एवं व्यावसायिकता को सुधारने की तरफ कोई अधिकृत रूप से ध्यान दिया जाय। राजा का प्रजा पालन का कर्त्तव्य अवश्य कहा जाता था किन्तु वह कर्त्तव्य उच्च वर्ण के वर्गों तक ही सीमित था। उस समय में मानव के जीवन का विकास भी अपने प्रारंभिक चरणों में ही चल रहा था। आदिमकाल की निष्क्रियता से मानव जीवन बाहर निकला ही था और निर्वाह के साधनों का वह विकास करने में लगा था। पशुपालन से आगे बढ़कर कृषि कार्य में वह नियोजित हो गया था तथा आग के अनुसंधान के पश्चात् रहन-सहन एवं खान-पान की पद्धतियों में नयापन आने लगा था। फिर बस्तियों का फैलाव हुआ और नगर बसने लगे। साथ ही व्यापार-वाणिज्य का प्रसार भी होने लगा। समर्थ वर्गों में शासक एवं धर्मशिक्षक के बाद व्यापारी का वर्ग भी शामिल हो गया। फिर भी ये तीनों वर्ग अल्पसंख्या में थे अत: इनकी जीवनशैली सामान्य जन के रहन-सहन से अलग ही रही। वैसे प्राचीनकाल का इतिहास भी असल में उन्नत वर्गों का इतिहास ही है, जिससे सामान्य जन की सामाजिक स्थिति की सही जानकारी नहीं मिलती है। ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों, गुरुओं, पैगम्बरों ने किया धर्म सिद्धान्तों का निरूपण:
ज्ञानालोक में विचरण करने वाले ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों, गुरुओं तथा पैगम्बरों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों के अनुसार धर्म सिद्धान्तों का निरूपण किया। अधिकांश धर्म प्रवर्तकों ने अपने सिद्धान्तों में मानवता, शान्ति, सहयोग जैसे गुणों को प्रमुख स्थान दिया तो भगवान् महावीर ने व्यक्तिमत्ता के स्थान पर गुणवत्ता को सर्वोच्च कहा-व्यक्ति की नहीं, गुणों की पूजा होनी चाहिये ताकि सामान्य से सामान्य जन भी गुण ग्राहक बनकर अपने जीवन विकास की प्रेरणा पर सके। यों जहां तक सिद्धान्तों का प्रश्न है, सभी धर्मों में उन्हें उदार व मानवतावादी रूप दिया है (अपवाद को छोड़ दें) किन्तु
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