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सुचरित्रम्
उनके पालन में या कि धर्म-प्रवर्तकों के उत्तराधिकारियों के समय में कई सिद्धान्तों को व्यवहार की दृष्टि से संकुचित दायरों में जकड़ दिया गया।
प्रमुखता की दृष्टि से संसार में निम्न धर्मों का महत्त्व माना जाता है
हिन्दू धर्म : वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा भगवतगीता के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि इस धर्म के सिद्धान्त मत मतान्तरों के बावजूद विकासशील रहे हैं। उदार सिद्धान्तों के उपरान्त भी जीवन व्यवहार में अनुदारता समाई रही। 'ब्रह्मा सत्यं जगन्मिथ्या' की मान्यता के साथ संसार को मायामय माना गया अतः साधना का लक्ष्य 'सोऽहं' ही रहा। उपनिषदों में दार्शनिकता सूक्ष्मधारा में बही तो गीता ने कर्म योग पर विशद-विवेचन प्रस्तुत किया। त्रिमूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव है जो क्रमशः संसार के जन्मदाता, पालनकर्ता एवं संहारक माने गये हैं। देवताओं की संख्या तैतीस करोड़ है पर विशिष्ट देवताओं में द्यौः (प्रकृति), वरुण (सदाचारी), इन्द्र (विजय), ब्रह्मा (पूर्ण रूप) का स्थान, है। चार युग बताये गये-1. कृतयुग (समाधि), 2. त्रेतायुग (यज्ञ), 3. द्वापर (पूजा) और 4. कलियुग (स्तुति प्रार्थना)। धर्म के आभ्यन्तर ज्ञान के दो उद्गम स्थान कहे गये-1. वस्तुनिष्ठ और 2. आत्मनिष्ठ। इस धर्म में अनेक समुदाय-उपसमुदाय बने तथा उन्होंने अपनी मत भिन्नता के अनुसार सिद्धान्तों का विश्लेषण किया। फिर भी शंकराचार्य, विवेकानन्द जैसी महान् विभूतियों ने इसका व्यापक प्रसार किया।
जैन धर्म : सूत्रकृतांग के अनुसार जैन धर्म एक वाक्य में परिभाषित किया जा सकता है कि किसी भी जीव को कष्टित-क्लेशित न करने वाला व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है और यही अहिंसा जैन धर्म का सार है और परम धर्म है। एक ही शब्द क्यों न कहें कि जैन धर्म अर्थात् अहिंसा। जैन सूत्रों में 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूलसूत्र व 4 छेद सूत्र एवं एक आवश्यक सूत्र सम्मिलित हैं। सूत्रों की संख्या के विषय में विभिन्न सम्प्रदायों में मतभेद है। जैन साहित्य विशाल है तथा अति प्राचीन ग्रंथों की संख्या भी बहुत है। अहिंसा का सभी सिद्धान्तों तथा व्रतों पर गहरा प्रभाव है। साधु साध्वी के 5 महाव्रत तथा श्रावक-श्राविका के 12 अणुव्रत, एक प्रकार से अहिंसा का ही फैलाव है। वैचारिक अहिंसा का प्रतीक है अनेकान्तवाद तो आर्थिक अहिंसा का पालन परिग्रह त्याग या परिग्रह परिमाण (अपरिग्रहवाद) द्वारा किया जाता है। जैनों के उन्नत विचारों को दर्शाता है-जैन नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, तत्त्व विद्या, द्रव्य पर्याय वर्णन, प्रमाण नय सिद्धान्त, आत्म-परमात्मवाद आदि। कर्मवाद का सिद्धांत जैन धर्म का अति महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।
बौद्ध धर्म : गौतम बुद्ध इस धर्म के प्रवर्तक थे जो महावीर के समवर्ती थे। इस धर्म का लक्ष्य धार्मिक विश्वास और भौतिक विज्ञान के मध्य समन्वय स्थापित करना था। बौद्ध विचारधारा जीवन का अर्थ परिवर्तन मानती है जो अनित्यवादी है। इसका साहित्य पिटक (नैतिक नियमों की पिटारियां) कहलाता है जिसके तीन विभाग है- 1. सुत्त (कथाएं), 2. विनय (अनुशासन) व 3. अभिधम्म (सिद्धांत) हैं। प्रत्येक विभाग निकाय आदि पांच भागों में बंटा हुआ है। पांच आर्य सत्य के अनुसार दुःख का कारण कही गई है, इन्द्रियों आदि साधनों की प्रबल तृष्णा एवं लालसा। ज्ञान के लिये विषयनिष्ठ केन्द्रों का होना आवश्यक माना गया है। इसके प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धांत के अनुसार
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