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ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति
शोधकर्ता रहे और साधना में रत रहे, वहां ज्ञान-विज्ञान की मणियां बहुलता से खोजी गई और वहीं से सभ्यता एवं संस्कृति का आलोक फैला। आज विश्व के विभिन्न भागों में ज्ञान-विज्ञान का विस्तार दिखाई देता है, उसका प्रारंभ पूर्व दिशा से ही हुआ था। आज तो पूर्व और पश्चिम के रूप में दो भिन्न केन्द्र दिखाई देते हैं किन्तु पूर्व का भाग सभ्यता की ऊंचाइयों पर चढ़ रहा था, तब पश्चिम ने सभ्यता का दर्शन भी नहीं किया था।
सूर्य पूर्व में उदित होता है और ज्ञान-विज्ञान का सूर्य भी पूर्व में ही उदित हुआ था तथा पूर्व में भी उसकी प्रकाश भूमि बनने का सौभाग्य भारत को ही प्राप्त हुआ था। गूढ़ ज्ञान से उपजे दार्शनिक चिन्तन ने भारत को 'विश्वगुरु' का मान दिलाया :
भारत में ज्ञान साधना के विकास एवं विस्तार में यहां की प्राकृतिक स्थिति का विशेष योगदान रहा। सुरम्य प्रकृति, धन-धान्य की संपन्नता एवं सामाजिक समरसता की परिस्थितियों के कारण लोगों को गहरा चिन्तन-मनन करने का पर्याप्त अवकाश रहता था। यह देश उस समय तो अनेक रहस्यों को खोज निकालने की जिज्ञासा अधिक तीव्रता से ही जगाता था इस कारण भौतिक से भी बढ़ कर वैचारिक एवं आध्यात्मिक शोध की ओर लोगों की रुचि ज्यादा बनी। फलस्वरूप ज्ञान, धर्म, दर्शन आदि के गूढ़ रहस्यों की ओर साधना का जोर रहा।
भारतीय विचारधारा की सामान्य विशेषताएं रही-मूलभूत रूप से आध्यात्मिक, धर्म एक युक्तियुक्त संश्लेषण, मन के तीन रूप-अवचेतन, चेतन, अतिचेतन, आत्मा की चेष्टाएं तीन अवस्थाओं मेंजागृति, स्वप्न, सुषुप्ति, बाह्यदृष्टि (इन्द्रिय) तथा अन्तर्दृष्टि (आत्मा) का दर्शन, सत्यान्वेषण आदि।
भारतीय दर्शन उपजा है गहन अध्ययन तथा गढ ज्ञान से और इससे जो धाराएं प्रवाहित हई. उन्होंने सूक्ष्म जगत् के स्वरूप का जो निचोड़ निकाला वह अपूर्व था और विश्व के किसी अन्य भाग में ऐसा सूक्ष्म अध्ययन सफल नहीं हुआ था। इसी दार्शनिक चिन्तन ने भारत को विश्वगुरु' होने का सम्मान दिलाया। अनेक देशों से विद्यार्थी अध्ययन हेतु यहां आते रहे। __ यह दार्शनिक चिन्तन जितना गहरा है, उतना ही विस्तृत। यहां मात्र उसकी संक्षिप्त-सी जानकारी दी जा रही है- सृष्टि विज्ञान : यह संसार कैसा है, कैसे बना, इसमें क्या-क्या शक्तियां हैं, यह कैसे चलता है आदि सृष्टि विज्ञान से संबंधित अनेक प्रश्नों पर अनेक प्रवर्तकों ने गहरा चिन्तन किया। ऋग्वेद में सृष्टि की उत्पत्ति की तीन श्रेणियां बताई गई हैं-1. उच्चतम परमार्थ सत्ता, 2. केवल स्वचेतना-मैं हूं एवं 3. स्वचेतना की सीमा। पांच मूल तत्त्व माने गये-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी-इन्हीं व अन्य तत्त्वों के संयोग से रचना बनी। पुरुष से विराट, विराट से फिर पुरुष और यों पुरुष जन भी और जन्य भी। विकास में धर्म, नीतिशास्त्र, परलोक शास्त्र आदि की धारणाएं। यह भी मान्यता रही कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की-वह अनादि और अनन्त है।
आत्म तत्त्व : जैन दर्शन के अनुसार आत्म तत्त्व है चैतन्य और ज्ञानमय, उसका होता है जड़ से जुड़ कर संसार में भव भ्रमण, हुआ है शरीर आदि जड़ तत्त्वों-पुद्गल परमाणुओं से उसका निर्माण।
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