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________________ सुचरित्रम् संसार एक विशाल शिक्षालय है, ज्ञान का प्रकाश फैला पूर्व के सूर्य से : __यह संसार एक विशाल शिक्षालय है। यहां के कण-कण से शिक्षा का स्रोत निकलता है। यहां काल के क्षण-क्षण से शिक्षा के मणि सूत्र बिखरते हैं। आवश्यकता है समेटने और बटोरने की। जब देखता हूँ इस धरित्री को, तो लगता है कितनी अनूठी सहिष्णुता है इसमें, कितनी क्षमाशीलता की अपूर्व रूपता है इसमें? कोई गंदगी कर रहा है इस पर तब भी कोई रोष नहीं, पूजा कर रहा है तब भी कोई तोष नहीं। न रोष, न तोष-अद्भुत समत्व का भाव। कैसी आश्चर्यकारी क्षमा और समता है। देखता हूँ इस निर्झर को, जो सतत बह रहा है अपने में सबको समाहित करके ! अगर कोई इसके जल को अंजली में भर कर इसे प्रणाम कर रहा है तो उसको कोई प्रसन्नता नहीं और कोई अपना सारा कूड़ा कर्कट इसके जल में डाल रहा है तो कोई खिन्नता नहीं। किसी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं-सबको अपने भीतर समा लेने की अद्भुत क्षमता। देखता हूँ फलों से लदी हुई वृक्षावलियों को, जो दे रही है प्राणवायु, नवजीवन प्रदान करने वाली सरसता-न कोई स्वार्थ है, न कोई अहं, न कोई द्वेष-कितनी स्वाभाविकता है? देखता हूं मुक्त आकाश को-निर्लिप्त, असंग एवं व्यापकता-न कोई ओर दिखाई देता है, न कोई छोर! वास्तव में प्रकृति का एक-एक कण समुच्चय शिक्षा रत्नों से दीप्तिमान है। प्रकृति के सिवाय काल भी बहुत बड़ा शिक्षक है। कल देख रहा था-एक व्यक्ति धन के अभाव में भारी दुःख झेल रहा था और आज देख रहा हूँ कि वह धन के अम्बार पर बैठा अपने को परम सुखी मान रहा है। सारे अभाव सद्भाव में बदल गये हैं। कल देख रहा था-एक व्यक्ति दारुण रोग से पीड़ित था-आज वह स्वस्थता का सुखानुभव कर रहा है। इसी तरह काल के इस गर्भ में न जाने कैसी-कैसी कृतियाँप्रतिकृतियाँ उभर रही हैं और तिरोहित होती जा रही है! कल देख रहा था-एक वृक्ष शुष्क-शुष्क नजर आ रहा था, आज वही हरितिमा से लहरा रहा है-नई-नई कोंपलों, पत्तों, फूल-फलों से महक रहा है। कल अकालग्रस्त धरती बंजर लग रही थी, आज वर्षा से आप्लावित होकर वह सरसब्ज व सुन्दर नजर आ रही है। कैसा कमाल है, इस प्रकृति का? अद्भुत है प्रकृति में जो कुछ घट रहा हैवह सबको शिक्षित ही तो कर रहा है जैसे कह रहा हो कि नूतनता का अहंकार मत कर और न पुरातनता का शोक मना। सुख के क्षणों में मद-मस्त न हो तो दुःख की घड़ियों में किस्मत को मत रो। देख-ये दुःख के क्षण तुझे निर्मल और पावन बनाने के लिये आते हैं क्योंकि पाप कर्मों के मैल से मलिन है तेरी आत्मा। दुःख नहीं आता तो सारे पाप कैसे धुलते? कैसे तू निर्मल बनता? पाप धुला, निर्मल हुआ-इससे बढ़ कर क्या? सुख में तो पुण्य कर्मों की क्षीणता होती है। पुण्य समाप्त हो गया और नया पुण्यार्जन नहीं कर पाया, तब क्या होगा? क्यों नहीं तू दुःखियों से शिक्षा लेता है निर्मलता की? और क्यों नहीं सुखियों से भी शिक्षा ले तू निर्लिप्तता की? यह संसार एक विशाल शिक्षालय है, जहां कदम-कदम पर शिक्षाएं बिखरी पड़ी हैं-इन शिक्षाओं को तू लेता चल और अपने दामन को भरता चल। यों शिक्षाओं के लेते चलने तथा दामन में भरते चलने की संसार के सभी भागों में हमेशा से होड़ चलती रही है। ज्ञान के खजाने इसी बोध भूमि से निकलते रहे हैं। जहां शिक्षार्थी प्रतिभाशाली रहे, 52
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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