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________________ ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति इस विजय की पृष्ठभूमि में बर्बरता नहीं, हृदय में उमड़ते हुए सात्विक प्रेम का निर्झर है। यह विजय दूसरों पर नहीं, अपने आप पर है। यह विजय रक्तपात के लिये नहीं, सकल आत्म शान्ति के लिये है । यह विजय पाशविकता से नहीं, सम्पूर्ण दैविकताओं के लिये है... हां, यही सच्ची शूरवीरता है और सच्ची विजय भी यही है। इस विजय की मनोभूमि से क्षुद्रताओं के सारे बंधन टूट जाएंगे, जहां सब जगह 'स्व' ही दिखाई देगा, कोई 'पर' नहीं, कोई भिन्न नहीं । सर्व में स्व के दर्शन तो स्व में सर्व दर्शन । 'पर' की विजय में घृणा है, हीनता है, व्यथा है, व्याकुलता है और है अहंकार का विस्तृतविकृत रूप । मैं बड़ा - वह छोटा, मैं बलवान - वह निर्बल, मैं शक्तिशाली - वह कमजोर, मैं दिव्य - वह तुच्छ, मैं सर्वस्व - वह ना कुछ... न जाने अहंकार के कितने घिनौने रूप छिपे रहते हैं 'पर' विजय की कामना में और वह विजय पाकर भी पराजित ही रहता है... जहां 'स्व' पर विजय हुई वहां पर भेद ही नहीं रहा । स्व की विजय में सर्व विजय है । पर की विजय से स्व की विजय भी संदिग्ध बन जाती है। कितना अन्तर होता है विजय-विजय में? कहाँ तू दूसरों का दमन करता है? स्वयं अपना ही दमन कर, (अप्पा चेव दमेयव्वो- महावीर ) अपने को जीत और अपने को जीत लिया तो दूसरा स्वयमेव जीत लिया जायेगा। जहां तू दूसरों को जीतने के लिये जाएगा वहां तू उनको जीत नहीं पाएगा बल्कि अपने आप से भी पराजित होता जाएगा ।.... सत्य को समझ। दूसरों को जीतने की वासना भयंकर है, इसके कीटाणु बड़े ही जहरीले हैं, जरा बचकर रहना। इन जहरीले कीटाणुओं का असर जन्म जन्मान्तर चलता ही रहता है-किसी भी जन्म में बच नहीं पाता है। वैर से वैर बढ़ता है और प्रेम से प्रेम पसरता है। दूसरों की विजय वैर से नहीं, प्रेम से कर। वैर से कभी भी किसी को जीता नहीं जा सका आज तक...ऐसी जीत कभी हो भी जाए तो वह होती है क्षणिक, अस्थायी, आशंकाओं और निराशाओं भरी।.... सुख, शान्ति, समृद्धि, उल्लास एवं सन्तुष्टि देने वाली यह विजय नहीं हो सकती । 'पर' की विजय में कितनी बढ़ती है मानसिक व्याकुलता ? कितनी होती है पीड़ा? फिर यह विजय कहां? कोणिक का संहार क्यों हुआ? दुर्योधन का विनाश क्यों हुआ? रावण क्यों मारा गया ?....... विजय की सही परिभाषा, अर्थवत्ता किसमें रही हुई है? क्या उस विजय में, जहां विजेता और विजित जन्मों और पीढ़ियों के शत्रु बन जाते हैं अथवा उस विजय में जहाँ विजेता विजित के हृदयासन पर सर्वदा के लिए विराजमान हो जाता है? यह शक्ति मात्र प्रेम में रही हुई है। प्रेम ने सदा हृदयासन पर साम्राज्य बनाया और दीर्घकाल तक चलाया। क्या घृणा, वैर, तिरस्कार में वैसी तरलता कभी रही है ? अतः प्रेम की अपूर्व शक्ति को पहचान, इसे अपनी शक्ति जान । तू जितना प्रेम दूसरों को देगा, उतना ही नहीं, उससे कई गुना प्रेम तू पाएगा।... हृदय की संकुचितता एवं क्षुद्रता को मिटा, स्वार्थ के घेरों को तोड़ और विराट ममत्व से नाता जोड़। फिर देख, तेरी कैसी विजय होती है? कहीं भी कोई शत्रु नहीं बचेगा, जब आत्मा ही मित्र बन जाए, तब शत्रु कौन रहेगा? तब अनुभूति होगी कि प्रेम में ही भगवत्शक्ति एवं आत्मशक्ति का अनन्त मिलन हो गया है ! भावनाओं के ऐसे ही उत्कृष्ट प्रवाह से उपजता है ज्ञान, खिलता है दर्शन, जन्म लेता है धर्म, फूटता है मर्म, निखरता है विज्ञान, आलोकित होता है जहान । 51
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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