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________________ मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक सजग, मानवता के अपने स्वरूप को स्थायित्व दे सकता है तो दूसरी ग्राम से विश्व स्तर तक की व्यवस्था को सक्रिय एवं मानवहित में संलग्न बना सकता है । इस दृष्टि से तैयारी ऐसी होनी चाहिए कि विश्व - व्यवस्था एवं मानवता का हित एक दूसरे के पूरक बनें। इसके लिये मानव का दृष्टिकोण उदार एवं व्यापक होना चाहिये । यदि वह अपने शरीर या ज्यादा से ज्यादा परिवार तक ही सीमित बना रहे तो उस संकुचितता से मानवता का ढांचा टिकेगा नहीं। मनुष्य का विकास क्रम या यों कहें कि उसकी मनुष्यता का विकास क्रम यदि देखा जाए तो ज्ञात होगा कि वह किस प्रकार क्षुद्र से विराट् स्थिति तक पहुंचा है। एक असहाय शरीर ने जन्म धारण किया तो आसपास में जो अन्य सक्षम शरीरधारी थे, वे उसे सहयोग करने लगे, उसके सुख-दुःख में भाग बंटाने लगे। इस प्रकार परस्पर में स्नेह एवं सद्भाव की कल्पना जगी और वह परिवार का एकरूप बन गया। परिवार जैसी व्यवस्था बहुत पुराने युग में नहीं थी, पर जब मनुष्य आसपास के सुख-दुःख को अपना बनाने लगा और अपने सुख-दुःख को आसपास के पड़ौसियों में बांटने लगा तो धीरे-धीरे परिवार की व्यवस्था खड़ी हो गई। सुख-दुःख में हिस्सा बंटाने वाले अपने 'निज' के हो • गये और जो उससे दूर रहे वे पराये बन गये। इस प्रकार मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख का विनिमय शुरु हुआ । आगे चलकर उसके जीवन में जो भौतिक और आधिदैविक दुःख आते, उनसे भी सब सहयोगपूर्वक लड़ते, दुःखों को दूर करने का मिलजुल कर प्रयत्न करते और जो सुख प्राप्त होता उसे सद्भावपूर्वक आपस में बांट लेते, मिलकर उसका उपयोग या उपभोग करते - बस व्यक्ति के जीवन के व्यापक होने की यह प्रक्रिया परिवार को जन्म देती चली गई, समाज का निर्माण करती चली गई और पूरी मानव जाति, बल्कि पूरे प्राणी जगत् एवं विश्व को एक अकेले व्यक्ति से जोड़ती चली गई। इसी वृत्ति ने धीरे-धीरे विराट् से विराट्तर रूप धारण किया और यह क्रम किन्हीं को आभास होता है और किन्हीं को नहीं, किन्तु अनवरत गति से आगे बढ़ता ही जा रहा है। यही क्रम समूची विश्व - व्यवस्था को मनुष्य तथा मनुष्यता के हित को स्थायी रूप से संयुक्त करके एकीभूत बनाएगा। अपनी मनुष्यता को पहचानें तथा सम्पूर्ण मानव जाति को एक मानकर चलें : यह तो आप निश्चित मानते होंगे कि आप मनुष्य हैं। आपको अपने चारों ओर एवं जहां भी आप जाते हैं, वहां वैसे ही मनुष्य दिखाई भी देते हैं। तो क्या मनुष्य जाति की समानताओं पर आपने कभी सोचा है? शरीर एक-सा, अंग- उपांग एक से काटो तो खून का रंग एक-सा, स्नेह - प्रेम का हावभाव एक-सा, मुस्कुराहट का असर एक-सा, दिल और दिमाग की मौजूदगी एक-सी और अन्दर भीतर में घुस तो सहानुभूति, सहयोगिता तथा धर्म की भावना एक-सी । फिर भी भेद सबको सामने दिखते हैं- मान्यताएं अलग, भाषा- बोलियां अलग, क्षेत्र-देश अलग, आर्थिक स्थितियां अलग, वृत्ति प्रवृत्ति अलग, खान-पान, रहन-सहन अलग और भांति-भांति के अलगावों के अलग-अलग अखाड़े। तो देखना यह है कि दोनों में असली क्या और नकली क्या? समानताएं असली हैं या भेद? दोनों में असलियत हो सकती है किन्तु अधिकांश भेद मानवकृत होते 47
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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