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सुचरित्रम्
माना गया है। जिसे नैतिकता भरा आचरण या सदाचार का मार्ग भी कहा गया है। ऋण मोचन के उपाय भी बताये गये हैं जैसे 1. ज्ञानोपार्जन एवं ज्ञानदान को परम्परा निभाना, 2. एक दूसरे की रक्षा एवं सहायता करना, 3. अपना काम सच्चाई व ईमानदारी से करना और दूसरों को इस दिशा में प्रेरित करना आदि। उपकारी के उपकार को मानते हुए उन्हें धर्म मार्ग में जोड़ना, धर्म मार्ग में आगे बढ़ाना, कुछ अंशों में उनके उपकारों से उऋण होना है। ___ यह ऋण और ऋणमोचन की बात क्या जताती है? यह बात विश्व व्यवस्था को बतलाती है। ऐसी परम्परा ढालने की बात है कि व्यवस्था के सूत्र कहीं भी कभी-भी टूटें नहीं बल्कि मजबूत होते रहें। एक दूसरे पर उपकार किया जाता रहे और नियमित रूप से उतारा जाता रहे तो व्यवस्था के भंग होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। यो व्यवस्था का संवर्धन होता रहेगा। व्यवस्था के संवर्धन हेतु प्रत्येक मानव को यह प्रतीति कराना आवश्यक है कि विश्व की समूची व्यवस्था हो अथवा राष्ट्रीय या प्रादेशिक शासन-प्रशासन अथवा किसी भी प्रकार के संघ-संगठन के नियम-अनुशासन हो, सबमें उसके सदस्यों की क्रियाशील साझेदारी है और उसके बिना इस अन्योन्याश्रित समाज में व्यक्ति या समुदाय किसी का भी काम ढंग से चलने वाला नहीं है। यद्यपि समाज एवं व्यक्ति की परस्पर निर्भरता सुस्पष्ट है, फिर भी यह भाव यदि प्रत्येक मानव के हृदय में जगा हुआ रहे तो व्यवस्था का स्वरूप सुचारु तो रहेगा ही, किन्तु वह संवर्धित भी होता रहेगा। कारण, सभी सौहार्द्र एवं सहयोग की भावना के साथ परस्पर जुड़े हुए रहेंगे। श्री राम कृष्ण परमहंस कहते हैं कि जहां कायरता, घृणा और भय व्याप्त हो, वहां शुभता प्रवेश नहीं कर सकती। विश्व-व्यवस्था एवं मानवता का हित एक दूसरे के पूरक बनें :
विश्व के विकास-ह्रास अथवा उत्थान-पतन में मनुष्य का सर्वाधिक सहयोग रहा है, क्योंकि इस पृथ्वी पर मनुष्य एक सर्वाधिक विकसित एवं प्रभावशाली प्राणी है। मनुष्य के विचार, चिन्तन, कार्य एवं उपक्रम से इस विश्व की व्यवस्था चली है, चल रही है और चलती रहेगी। अन्तर की बात यही है कि मनुष्य की सामाजिकता जितनी संघीय, सहयोगात्मक एवं दायित्वपूर्ण होती है तो विश्व की समूची व्यवस्था भी उतनी अधिकतम संख्या के अधिकतम हित से आगे बढ़कर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय बन सकती है। यह इस तथ्य पर निर्भर है कि मनुष्य एवं विश्व का, व्यक्ति और समाज का आपसी जुड़ाव कितनी उदारता एवं हित भावना पर आधारित है? सामाजिक प्रगाढ़ता एवं मनुष्य की बुद्धिमत्ता इन दोनों का जोड़ है, क्योंकि मनुष्य, किसी भी अन्य शक्ति की अपेक्षा स्वयं की बुद्धि एवं जागरूकता से निर्देशित होता है। पशुओं में ऐसा नहीं, क्योंकि प्रकृति उनकी जीवन प्रणाली को मर्यादित बनाये रखती है। मनुष्य प्रकृति की सीमा में ही बंधा हुआ नहीं रहता। यही कारण है कि मनुष्य की समाज-व्यवस्था विधि-निषेधात्मक होती है। क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये?-यह अनुशासन मनुष्य स्वयं की सहमति एवं समाज के माध्यम से अपने पर लागू करता है। इस अनुशासन को जब वह स्वयं ही तोड़ता है तब अव्यवस्था की शुरुआत होती है। ऐसी अनुशासनहीनता मनुष्य में पैदा न हो-इसी के लिये उसके चरित्र निर्माण की आवश्यकता महसूस की जाती है।
समरस सामाजिकता के आधार पर ही मनुष्य स्वार्थ आदि विकारों में न फसते हुए एक ओर