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________________ मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक साथ संचालित की जा रही है अथवा उस व्यवस्था के संचालन से किस प्रकार के चरित्र का परिचय मिल रहा है? अत: व्यवस्था एवं सदाचार या चरित्र का सामंजस्य होना ही चाहिये और मनुष्य को इस सामंजस्य का प्रतीक बनना चाहिए। तब सर्वत्र सदाचार का निर्वाह स्वाभाविक बन जाएगा। ___ एक विचार यह भी है कि धर्म को जो धारण करता है वह विज्ञान है? अतः मनुष्य का धर्म भी एक विज्ञान ही है जो त्रिविधात्मक है। इस धर्म के तीन स्वर हैं- देह रक्षा, वंश रक्षा तथा सारे सामाजिक परिवेश के साथ संतुलन। और मनुष्य का यह जो धर्म है, उसे ही सदाचार कह लें, नैतिकता कह लें या चरित्र कह लें। धमो रक्षति रक्षितः'- राजधर्म, लोकधर्म और प्रकृति धर्म की मनुष्य रक्षा करे तो ये सब धर्म मनुष्य की रक्षा करेंगे। सदाचार का निरूपण मनुष्य धर्म के लिये ही है क्योंकि पशुओं को सदाचार की अपेक्षा नहीं होती-वे तो प्रकृति द्वारा ही मर्यादित होते हैं। बुद्धिशील एवं कर्मठ स्वभाव के कारण मनुष्य को सदाचार से बंधना चाहिये ताकि उसकी बुद्धि एवं कर्मठता अनाचार या अत्याचार की दिशा में न बढ़ सके। व्यवस्था की सुरक्षा सदाचार से ही संभव होती है। सामाजिक समरसता के योग से मनुष्य द्वारा व्यवस्था का संवर्धन : आप अपनी दिनचर्या का अवलोकन करें। प्रातः उठकर रात को सोने के समय तक आप जितने कार्य करते हैं, जितनी वस्तुओं का उपयोग करते हैं अथवा जितना भी व्यापार-व्यवसाय चलाते हैंउस सबमें क्या आपको कहीं भी ऐसा प्रतीत होता है कि वह बिना किसी अन्य के सहयोग से कर रहे हैं? शायद ही ऐसा प्रतीत हो अर्थात सर्वत्र किसी अन्य का सहयोग अवश्यमेव होता ही है। इसे ही सामाजिक सहयोग कहा जा सकता है। एक छोटे से उदाहरण से इसे समझें। आप खाने के लिये बैठे हैं और थाली में दाल-रोटी है-इसे क्या आप सिर्फ अपनी कमाई मानेंगे? एक बार तो यही कहेंगे कि मेरी अपनी कमाई से दाल रोटी मिली है। ठीक है-यह मान ले तब भी गेहूं या दाल का उत्पादन किसान ने अपने खेत में किया, आपकी पत्नी, मां या बहिन ने उसे साफ किया, भोजन पकाया तभी तो दाल रोटी आपकी थाली में आ सकी है। फिर इसमें काम आने वाले अनेक उपकरणों के अनेक निर्माता होते हैं। आशय यह कि पग-पग पर सामाजिक सहयोग से मनुष्य का जीवन निर्वाह होता है। दूसरे शब्दों में कहें कि मनुष्य एवं समाज अन्योन्याश्रित है। मनुष्य अकेला नहीं अपितु उस समाज में रहता है जहां सभी लोगों की सम्मिलित भागीदारी होती है। प्रत्येक की एक दूसरे पर निर्भरता रहती है। इसी निर्भरता से उपजती है-ऋण की बात और ऋण मोचन की बात । ऋण मोचन में ही कर्तव्य का समावेश होता है। पहले ऋण की बात कर लें मनुष्य अपना जीवन निर्वाह हेतु निर्भर रहता है समाज पर यानी कि अपने साथियों पर, उसके बाद पशुओं पर, वृक्षों-वनों पर, प्रकृति पर, हवा, पानी, जमीन पर और इस तरह की अनेक बातों पर। अब जिसका ऋण है उसके प्रति मनुष्य का कर्तव्य बनेगा ही कि वह अपने ऋण का मोचन करे-अपने उपकार का बदला चुकावे। इन ऋणों का स्थूल विभाजन है - 1. मातृ पितृ ऋण (माता-पिता, भाई बन्धु), 2. ऋषि-मुनि ऋण (ज्ञानोपार्जन, धर्मोपदेश), 3. प्रकृति ऋण (धन-धान्य, सुख-सुविधा), 4. भूत ऋण (भूत, जीव, सत्व आदि प्राणियों का उपकार)। तो इनके ऋणों के मोचन को मनुष्य का कर्तव्य 45
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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