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सुचरित्रम्
हैं जिसकी कसौटी यह है कि वे मानव-प्रयत्नों से मिटाये भी जा सकते हैं? यों समानताओं और भेदों को आप किस दृष्टि से देखेंगे तथा अपना निर्णय कैसे निकालेंगे? कोई भी सही निर्णय निकालने के लिये समस्या एवं स्थिति के मूल में पहुंचना होता है, इसलिये पहुंचिए मनुष्य के यानी अपने ही मूल में, मनुष्य का मूल कहां है? उसके जन्म में या जीवन की शुरुआत में? अर्थात शिशु अवस्था में। किसी भी देश, क्षेत्र, सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, भाषा अथवा अन्य किसी भी भेद वाले एक शिशु को
देखिये-उसमें सभी समानताएं दिखती हैं या सभी भेद अथवा दोनों? किसी का भी साफ उत्तर होगा कि शिशु में समानताएं तो सभी हैं, पर भेद एक भी नहीं। भेद तब पैदा होने लगते हैं, जब बड़े लोग अपने शिशु का जन्म संस्कार आदि अपने भेद के अनुसार करना शुरु करते हैं, अन्यथा गर्भ से जब कोई भी शिशु बाहर आता है तो एकसी चीख निकालता है और मां का दूध पीने के लिये एक सी आतुरता दिखाता है। यह तो होती है उसकी मूल आवश्यकता, लेकिन इतना सा पाकर वह देता कितना है-फूलों सी झरती हुई मुस्कान, मासूम चेहरे की शान और सरल प्यार की खान। जो वह छोटी अवस्था में देता है, क्या उसका शतांश भी बड़ा होकर मनुष्य दे सकता है? यह सत्य है कि मनुष्य मात्र का जीवनारंभ-'बाहर में एक देह प्यारा और भीतर में एक सी नेह-धारा' के साथ होता है। बस. यहीं तक सच्चा संसार है प्रकति है और मनुष्य की असलियत है-तन-मन एकदम शद्ध.प्रेम से प्रबद्ध चंचल गतिशीलता पर कहीं नहीं अवरुद्ध। ___ इसके आगे जो कुछ है, उसमें अधिकांश मनुष्य का अपना ही किया और बनाया हुआ है-भेदों की भयानकता, अनैतिकता की अति, घोर स्वार्थ का आचरण, अपराधों और हिंसा का दौर-दौरा, सत्ता और सम्पत्ति की भूख, नानाविध प्रदूषण और सबसे बढ़कर अपने ही साथियों का शोषण एवं उत्पीड़न । वह जैसा बना है या बनता है, अपने शिशु को भी बनाता है-अपने संस्कारों की घुट्टी पिलाता है। यह आज का बिगड़ा हुआ मनुष्य संसार की मूल रचना को अस्त-व्यस्त करता है, विकृत बनाता है तथा अपने व अपने साथियों के बीच तरह-तरह की दीवारें खड़ी करता है। ये दीवारें हैं राष्ट्रों की, सम्प्रदायों की, जातियों की, भाषाओं की, वादो-विचारों की, कार्य प्रणालियों की, वर्गों की-और इन सभी दीवारों की नींव में होता है उसका स्वार्थवाद, हठवाद, दुराग्रहवाद और कट्टरतावाद। इनका मिलाजुला रसायन बनता है-अलगाववाद यानी न तोड़े जा सकने वाले भांति-भांति के भेद। इन पर गंभीर चिन्तन होना चाहिये। ___यह चिन्तन हमें दो बातों की तरफ ले जाता है-(1) हम अपने हृदयतल में दबी छिपी मनुष्यता को पहचानें और उसे बाहर प्रकाश में लाकर सक्रिय बनावें एवं (2) इस सत्य को स्थायी रूप से आत्मसात् कर लें कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक है। (एगा मणुस्स जाइ-महावीर) और उसके बीच भेद डालने का कार्य निकृष्ट एवं जघन्य होता है।
इस विशाल मनुष्य जाति की आज की दुरावस्था की झलक एक रूपक के माध्यम से समझें एक हजारों सभागारों-कक्षों वाला विशाल भवन है और सभी में मनुष्य जाति के सदस्य रहते हैं। सामान्य तौर पर यह होना चाहिये कि सब कमरों के दरवाजे व खिड़कियां खुली रहे, एक दूसरे के कमरों में