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________________ मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवधपद टिका हुआ नहीं रह पाएगा तो लड़खड़ाता रहेगा या फिर घोड़े की पीठ से ही उसे उछाल दिया जाएगा कि वह क्षत-विक्षत हो जाए। इसका दूसरा पहलू भी समझ लीजिए। यदि घोड़ा दुबला और मरियल हुआ तो सवारी का कोई मजा नहीं रहेगा। सवार उससे कोई खास दूरी भी पार नहीं कर सकेगा। अतः अपेक्षा यह की जाती है कि घोड़ा तो कुलांचे भरने वाला ही हो, पर सवार भी उसके मुताबिक अपने आपको तेज तर्रार बनाले। फिर सवारी का मजा तो आयेगा ही, पर लम्बी-लम्बी दूरियों को आसानी से पार कर लेना भी संभव हो जाएगा। मनुष्य को अपने जीवन में उन्नति की लम्बी दूरियाँ ही तो पार करनी है और उसमें मन का योग मिले तो कहना ही क्या? सभी धर्म प्रवर्तकों ने मन की जीत को अति कठिन कहा है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि मन को जीतना बड़ा कठिन है, क्योंकि मन वायु के समान चंचल है (चंचल हि मनः कृष्ण, वायुरिव सुदुष्कर-गीता)। बुद्ध कहते हैं कि सब धर्म, सब वृत्तियां और सब संस्कार पहले मन में ही पैदा होते हैं (मनो पुत्वंगमा छंदा, मनोसेट्ठा मनोभया-धम्मपद 1/1)। महावीर ने मन के दोनों पहलुओं पर प्रकाश डाला है कि मन दुष्ट घोड़े जैसा दुस्साहसिक है (मणो साहस्सिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावईउत्तराध्ययन, 23)। मन जैसा कोई शत्रु नहीं, लेकिन मन के समान अनन्य मित्र भी कोई नहीं। मन ही की सारी सृष्टि है। मन उत्साहित है तो दुनिया रंगीन-सब कुछ आनन्दायक और मन उदास तो जैसे सब ओर शोक छाया हुआ हो। मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। मन मनुष्य के साथ ही-सवाल इतना ही है कि मनुष्य मन का स्वामी बने, उसे अपने विवेक और आदेश से चलावे या वह मन के अधीन होकर बियावान में भटक जाए। घोड़े को अपने काबू में रखा जाएगा तो वह वरदान है-कहीं भी कभी-भी निश्चिन्त होकर चल पड़ो, मंजिल तक पहुंचकर ही रुकोगे। वही घोड़ा अभिशाप हो जाएगा जो उस पर काबू नहीं रख पाए-तब उसकी पीठ पर सवार होने की बजाय उस के पांवों से बंधे घिसटते रहोगे और अपने को लहुलुहान बना लोगे। यही मन और मनुष्य के बीच का संबंध है। मन वरदान तो है ही परंतु अपनी कमजोरी से उसे अभिशाप से भी बदतर बना लोगे। मन की गति को रोकिए नहीं, गति को गंतव्य की ओर बढ़ाइए : · लोमड़ी अंगूर के गुच्छे तक नहीं पहुंच सकी और अंगूर नहीं पा सकी तो उसने कह दिया-अंगूर खट्टे हैं। लेकिन अंगूर हकीकत में खट्टे थोड़े ही थे। लोमड़ी ने अपनी अशक्यता की गाज मीठे अंगूरों के सिर पर गिरा दी। ऐसी ही कुछ विचारकों ने मन के विषय में अपनी राय बनाई होगी-कई बार ऐसा आभास होता है। मन चपल अश्व के समान चंचल है और उसकी गति तीव्र है-यह सही है, किंतु क्या इस विचार को सही माना जाए कि उसके लिये मन की गति को रोक दो (योगश्च चित्त वृत्ति निरोधः पातंजलि का योगशास्त्र )? घोड़े की चाल पर काबू नहीं पाया जा रहा है तो उसे अस्तबल में बांधकर खड़ा कर दो-क्या किसी कमजोर सवार का यह फैसला उचित माना जा सकता है? शायद है लोग उस सवार की हंसी उड़ावें और सलाह दें कि घोड़े को बांध कर खड़ा मत करो, बल्कि खुद को उस अरबी घोड़े पर सवारी करने लायक बनाओ। आप कोई एक अच्छी मशीन लाए और उसे चलाना न आन सके तो क्या उस कीमती मशीन को कचरे में फैंक देंगे? ऐसा नहीं करेंगे, 39
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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