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बल्कि हर उपाय से उसे चलाना सीखेंगे और मशीन की पूरी क्षमता तक उसे चला कर भरपूर लाभ उठाएंगे। ऐसा ही विचार मन के लिये भी मनुष्य को बनाना चाहिये। मन की गति को न तो रोकिए
और न ही घटाइए, बल्कि अपने को कुशल नियंत्रक एवं निर्देशक घुड़सवार बना कर मन की अपार शक्तियों के साथ अपने जीवन पथ को सुगम एवं सफल बनाइए। ___ यही सत्य स्व. उपाध्याय श्री अमर मुनि जी म.सा. ने अपनी ओजस्वी लेखनी से सुस्पष्ट किया है-'विचारकों की शिकायत है कि मन बड़ा चंचल है। किन्तु मैं पूछता हूँ कि यह शिकायत ऐसी ही तो नहीं है कि हवा क्यों चलती है? अग्नि क्यों जलती है? पानी क्यों बरसता है? सूर्य क्यों तपता है? हवा स्थिर क्यों नहीं हो जाती? अग्नि ठंडी क्यों नहीं बन जाती? पानी रूक क्यों नहीं जाता? सूर्य शीतलता क्यों नहीं देता? दिल धड़कना (गतिशीलता) बन्द क्यों नहीं कर देता? प्रत्येक वस्तु का अपना धर्म होता है, स्वभाव होता है। हवा का धर्म चलना है, अग्नि का धर्म जलना है और मन का धर्म मनन करना है। मन है तो मनन है। मनन है तो मनुष्य है। मन जब मनन करेगा तो गतिशीलता आएगी ही, सक्रियता आएगी ही। मन से शिकायत है तो क्या आप एक इन्द्रिय आदि बिना मन वाले (असंज्ञी) हो जाते तो अच्छा होता? न रहता बांस, न बजती बांसुरी! मन ही नहीं होता तो चंचलता भी नहीं होती। बात वस्तुतः यह है कि मन कोई परेशानी और दुविधा की चीज नहीं है। यह तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, महान् पुण्य से प्राप्त होने वाली दुर्लभ निधि है। भगवान् महावीर ने कहा हैबहुत बड़े पुण्य का जब उदय होता है तो मन की प्राप्ति होती है। सम्यग्-दर्शन किसको प्राप्त होता है? संज्ञी को या असंज्ञी को? जिसके पास मन नहीं, क्या वह सम्यग् दृष्टि हो सकता है? नहीं न। सम्यग् दृष्टि की श्रेष्ठतम उपलब्धि मन वाले को ही हो सकती है। यह आप मानते हैं, तो फिर मन आपके लिये दुविधा की वस्तु क्यों है? उसे ऐसा भूत क्यों समझते हैं कि जो जबरदस्ती आपके पीछे लग गया है? मेरे बंधुओ! यह तो वह देवता है , जिसके लिये बड़ी-बड़ी साधनाएं करनी पड़ती है। फिर भी मन को मारने की बात क्यों?
निष्कर्ष यह है कि मन जैसी अमूल्य उपलब्धि का आत्मोन्नति में पूरा-पूरा उपयोग कीजिए। उसकी गति को न रोकिए, न घटाइए, बल्कि मनन की शक्ति को इतनी बढ़ा लीजिए कि गंतव्य तक पहुंचना सरल, सुगम एवं शीघ्र प्राप्य बन जाए। मानव-मन में चलता रहता है देवासुर संग्राम पल-प्रतिपल :
पौराणिक वर्णन कि देवासुर संग्राम चलता रहा जिसका एक दृश्य समुद्र मंथन के रूप में सामने आया और उसमें से निकले रत्नों के बंटवारे के समय देवताओं और राक्षसों के बीच चल रहा संघर्ष उग्रतर हुआ। यह देवासुर संग्राम मानव मन में पल-प्रतिपल चलता ही रहता है। इस संग्राम का अहसास प्रत्येक विवेकवान् मानव कर सकता है, क्योंकि इसके लिये दृष्टा भाव की जरूरत होती है।
दृष्टा बनने का अर्थ है स्वयं अपने भीतर झांकना, झांकते रहना और मन के संकल्प-विकल्पों का लेखा-जोखा लेना, उनका विश्लेषण करना और उनकी गति में संशोधन लाकर शुद्धता का स्वरूप देना। इस सारी प्रक्रिया को समझना चाहिये। मन के संकल्प-विकल्पों के तीन रूप होते हैं
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