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________________ सुचरित्रम् थोड़ा-सा बढ़ाने की प्रार्थना की तो भगवान् ने क्या कहा, मालूम है? 'न भूयं न भविस्सइ'-(ऐसा न हआ है, न कभी होगा) देवराज! संसार की कोई भी महाशक्ति अधिक तो क्या, अपनी एक श्वास भी इधर-उधर नहीं कर सकती (चिन्तन की मनोभूमि, पृष्ठ 434)। निष्कर्ष यह निकला कि चलते रहने के जीवन-धर्म का निर्वाह तभी स्वस्थतापूर्वक होता है जब उस पर चलते हुए अहंकार न पैदा हो। अहंकार सही चाल को बिगाड़ देता है और मनुष्य अभिमानी बन कर ऐसी विकृत चाल पकड़ लेता है कि वह चाल के सहीपन को ही भूल जाता है। चाल को सही बनाने और चलते रहने की क्रिया को स्वस्थ बनाए रखने के लिए चरित्र के निर्माण एवं उसके सतत् विकास की अपेक्षा रहती है। आप चलते रहें और चरित्र निर्माण की यात्रा अनवरत चलती रहे: आप चलेंगे और चलते रहेंगे, तभी चरित्र निर्माण की यात्रा भी अनवरत चलती रहेगी और व्यक्ति से लेकर विश्व तक की समूची व्यवस्था भी सुचारू रूप से चलती रहेगी। उत्तम उद्देश्य के साथ की जाने वाली किसी भी यात्रा में यदि यात्री का उत्साह अदम्य है तो उसकी यात्रा में कोई विघ्न उपस्थित नहीं हो सकता तथा उस यात्रा की पूर्णाहुति भी सुनिश्चित मानी जा सकती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की नोबल प्राइज से पुरस्कृत काव्य पुस्तिका गीतांजलि का 'यात्री आमि ओरे' (यात्री) शीर्षक से लिखा गीत अतीव प्रेरणास्पद है-'मैं यात्री हूँ। मुझे कोई पकड़ कर रोक नहीं सकता। सुख-दुःख के सारे बंधन मिथ्या है।' मेरा यह अपना घर भी पीछे पड़ा रह जाएगा। विषयों के बोझमझे नीचे की ओर खींचे रहे हैं. परन्त वे भी छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाएंगे। ....मैं यात्री हैं। मैं खब जी भर कर गाने गाता हुआ अपने मार्ग पर चलता जा रहा हूँ। मेरे देह-दुर्ग के सब द्वार खुल जाएंगे, वासनाओं की सब जंजीरे टूट गिरेंगी। मैं भलाई-बुराई की लहरों को काटता हुआ पार हो जाऊंगा और लोकलोकान्तर की ओर चलता रहूंगा। ....मैं यात्री हूँ। मेरे सिर पर जितना भी बोझ है, वह सब हट जाएगा। किसी अज्ञात के भाषाविहीन गीत मुझे सुदूर आकाश में बुला रहे हैं। किसी की बंशी के गंभीर स्वर संध्या-सवेरे मेरे प्राणों को अपनी ओर खींच रहे हैं। ...मैं यात्री हूँ। न जाने रात के किस पिछले पहर में यात्रा के लिए निकल पड़ा। उस समय कहीं किसी भी पक्षी का गीत नहीं सुनाई पड़ रहा था। न जाने कितनी रात बाकी थी। उस अंधकार में केवल एक नक्षत्र अनिमेष हगों में जाग रहा था।...मैं यात्री हूँ। न जाने कौनसा दिनान्त होने पर मुझे कौनसे घर पहुंच जाना होगा? वहां कौन से तारों के दीपक जलते हैं? किन पुष्पों की सुगंध ये वहां वायु शब्द करती हुई बहती है? अनादिकाल से वहां कौन अपने स्निग्ध नयनों से मेरी प्रतीक्षा करता है? (गीतांजलि का पं. देवनारायण त्रिवेदी का अनुवाद, पृष्ठ 117)। ___ चरित्र निर्माण की यात्रा में भी अभियान के सहभागियों का ऐसा निर्द्वन्द संकल्प होना चाहिए। स्वयं के चलते रहने का संकल्प यदि अडिग रहेगा तो इस अभियान के अनवरत रूप से चलने की संभावना भी साकार रूप ले लेगी। वैष्णव परम्परा के संत अपने भक्त से कहते हैं कि 'त भगवान से धन आदि भोग्य पदार्थों की कामना मत कर. यहाँ तक कि अपनी आय वद्धि की भी कामना मत कर किन्त यह कामना अवश्य कर कि तेरे जीवन का सदपयोग हो. तेरा जीवन सार्थक बने तथा तेरा जीवन चरित्रशील हो।' परन्तु जैन शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है कि 'तू न जीवन की कामना 546
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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