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________________ जीवन निरन्तर चलते रहने का नाम कर और न ही मरण की कामना कर (जीवियं णाभिकंखेज्जा, मरणं णाभिपत्थए)। वास्तविकता यही है कि जीवन केवल जीने के लिए ही नहीं है, जीवन तो सदुपयोग के लिए है-निरन्तर चलते रहने के लिए है। अतः उचित यह है कि जीवन को सार्थक बनाने की कामना करो। इस प्राप्त शरीर तथा अन्य शक्तियों की सहायता से तुम संसार का कितना भला कर सकते हो-यह देखो। भारत के दर्शनशास्त्री कहते रहे हैं कि तुम कभी अपने सुख की मांग मत करो, धन-वैभव की याचना मत करो, किन्तु विश्व का हित साधने की कामना अवश्य करो। यदि संयोग से आपको धन, वैभव, सम्पत्ति, सत्ता या पद प्राप्त हो जाता है तो उसका विश्व हित में उपयोग करें-ऐसी भी कामना करें। भगवान से सच्चे भक्त को क्या याचना करनी चाहिए-इसके लिए एक संस्कृत उक्ति का निर्देश है'हे प्रभो! न मुझे राज्य चाहिए और न स्वर्ग या अमरता ही चाहिए। चाहिए तो यही कि मैं दुःखों से सन्तप्त हो रहे प्राणियों के दुःखों को दूर कर सकू (न स्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग नच पुनर्भवम्। कायमे दुःखतप्तानां प्राणिनामार्त्तिनाशनम्।) मनुष्य के चरित्रनिष्ठ हो जाने के बाद उसके पास भी केवल यही कामना शेष रह जानी चाहिए। जब एक मात्र यही कामना शेष रह जाती है तब ही समझिए कि वैसा जीवन सार्थक बन चुका है और वह अपने साध्य के प्रति सदैव समर्पित रहेगा। ऐसा अनूठा समर्पण भाव जब अपने पांवों पर चलता है तो उस चलने का क्या कहिए? वह जब सतत रूप से चलता रहता है तो कोई संदेह नहीं कि उसमें चारों ओर मुरझाए फूल खिलते रहेंगे, बुझे हुए दीपक जलते रहेंगे और आंस बहाते हए चेहरे मस्कराते-खिलखिलाते रहेंगे। ऐसी निष्ठा चरित्र निर्माण अभियान को सफल बनाने की दृष्टि से जगाने की जरूरत है। एक कवि के इन हार्दिक उद्गारों को अपने तन-मन में रचा-बसा लीजिए जो न बर्फ की आंधियों से लड़े हैं कभी पग न उनके शिरवर पर पड़े हैं अगर जी सको तो जिओ तुम जूझ कर अमरता तुम्हारे चरण चूम लेगी। जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मानव जीवन पाने की सार्थकता है-चरेवेतिः-चरेवेतिः चलते रहो, चलते रहो : - वेदों में यह गान गुंजरित हुआ है-चरेवेतिः-चरेवेतिः अर्थात् चलते रहो। इस गान का मर्म स्पष्ट है कि निरन्तर चलते रहोगे तो कभी थकोगे नहीं, थकोगे नहीं तो रुकोगे नहीं और रुकोगे नहीं तो झुकोगे नहीं। एक सफलताकामी यात्री का यही लक्षण होता है। एक पाश्चात्य दार्शनिक रोबर्ट फ्रोस्ट ने कहा है-"जंगल में मुझे दो मार्ग अलग-अलग फंटते हुए दिखाई दिए और मैंने उन दो में से वह मार्ग चुना जिस पर बहुत कम यात्रियों ने यात्रा की थी और मेरे उस चुनाव से मेरे चलने पर भारी अन्तर आया (Tworoadsdiverged in the wood and I took the one less travelled, by and that decision made all the difference.)। किसी भी यात्री में ऐसी स्फूर्ति होनी चाहिए कि वह स्वयं अपनी राह बनावे और मंजिल तक पहुंचे।" 547.
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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