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जीवन निरन्तर चलते रहने का नाम
तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्द रागो ते तत्थं संयोजने चा- संयुक्त निकाय-4/35/232)। कर्मअकर्म का विवेचन जैन दर्शन में भी बड़ी गहराई से हुआ है ( आचारांग सूत्र, 2/3/15/134)। गीता की भाषा में इसे ही निष्काम कर्म कहा गया है।
मनुष्य का यह स्वभाव माना गया है कि वह कर्म करे चलता रहे। यह मान्यता दर्शन की ही नहीं, मनोविज्ञान की भी है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर 'कर्त्तव्य बुद्धि' (करने का विचार) की स्फुरणा होती है। सामान्य मनुष्य कुछ करता है तो साथ ही यह सोचता भी है कि यह मैंने किया या इसका करने वाला मैं हूँ। इस रूप से कार्य के साथ कर्त्तापन की भावना प्रकट होती है। किन्तु इसका एक दुष्परिणाम भी सामने आता है उसके और उसके करने के बीच एक 'अहं' की दीवार खड़ी हो जाती है। वह 'अहं' उसमें इस तरह सोचने का ढंग पैदा कर देता है कि मैंने ही यह काम किया है या मैं नहीं होता तो यह काम भी नहीं होता। इस प्रकार 'मैं' को लेकर अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मन में चलने लगते हैं, जैसे कि मेरे बिना मेरे परिवार की अथवा समाज की ओर कहीं पदेन हो तो राज्य या राष्ट्र की गाड़ी नहीं चल सकती । कर्त्ता बुद्धि के अनेक विकल्प तूफान की तरह हैं और वहाँ-वहाँ जहाँ वह कार्य करता है, अशान्ति एवं कोलाहल का वातावरण बन जाता है । समस्याएं पैदा करने का अधिकतर काम यही 'अहं' करता है। आज किसी भी क्षेत्र में देखें - वहाँ काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन में उसके कर्त्तापन का नाग हर वक्त फुंकारे मारता रहता है, फलस्वरूप एक दूसरे के 'अहं' आपस में टकराते रहते हैं और अशान्ति का घनत्व बढ़ता रहता हैयहां तक कि व्यक्तियों एवं समूहों के कार्यकलाप तक संकटग्रस्त हो जाते हैं। इस कर्तापन की बुद्धि यानी 'अहं' पर उचित नियंत्रण चरित्र बल से ही किया जा सकता है। 'अहं' का भाव जितना मन्द होगा, उतना ही शान्ति का वातावरण सघन बनेगा ।
कर्त्तव्य बुद्धि के अहंकार को भूलना इसलिए आवश्यक है कि जब तक ऐसा अहंकार बना रहेगा उसका चलना स्वस्थ नहीं बन सकेगा। जैसे शराबी के पांव लड़खड़ाते हैं उसी प्रकार अहंकार के मद में चाल बिगड़ जाती है। चाल बिगड़ी तो चलन बिगड़ा और पूरा चाल-चलन बिगड़ने लगता है। इस समस्या के विषय में उपाध्याय अमर मुनि जी का समाधान सटीक है और अनुसरणीय है- कर्त्तव्य बुद्धि के अहंकार को विसारने और भुलाने का आखिर क्या तरीका है? यह आप पूछ सकते हैं। मैंने इसका समाधान खोजा है। आपको बताऊं कि अहंकार कब जागृत होता है? तब जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य-सीमा को अतिरंजित रूप से आंकने लगता है- 'जो है' उस से कहीं अधिक स्वयं को देखता है, अपनी ही वास्तविकता से अधिक लम्बा बना कर नापता है, तब औरों से बड़ापन महसूस करने लग जाता है और यही भावना अहंकार में प्रस्फुटित होती है। यदि मनुष्य अपने सामर्थ्य को सही रूप में आंकने का प्रयत्न करे, वह स्वयं क्या है और कितना उसका अपना सामर्थ्य है- यह सही रूप में जाने तो शायद कभी अहंकार करने जैसी बुद्धि भी न जगे। मनुष्य का जीवन कितना क्षुद्र है और वह उसमें क्या कर सकता है एक श्वास तो इधर-उधर कर नहीं सकता - फिर वह किस बात का अहंकार करे ? साधारण मनुष्य तो क्या चीज है? भगवान् महावीर जैसे अनन्त शक्ति के धर्त्ता भी तो अपने आयुष्य को एक क्षण भर आगे बढ़ा नहीं सके। देवराज इन्द्र ने जब उन्हें अपने आयुष्य को
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