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विश्व रचना, व्यवस्था का परिदृश्य एवं संतुलन की सुई
संसार नहीं है-यह स्पष्ट संदेश है (एस संसारेत्ति पवुच्चई-महावीर ) यह दृश्य जगत् जो है वे त्रस जीवी हैं-स्थावर जीव दिखाई नहीं देते। त्रस जीवों (दो से पांच इन्द्रिय वाले) में भी मनुष्य ही सबका सिरमौर है। उसका अर्थ यह माना जाना चाहिये कि सर्वाधिक गतिशीलता भी मनुष्य में होनी चाहिये कि वह तत्परता से छोटे त्रस तथा सूक्ष्म स्थावर जीवों का संरक्षण करने का भार निभाता रहे। इस भार निर्वाह में उसका स्वयं का संरक्षण तथा विकास भी छिपा हुआ है-इसका उसे पक्का आभास होना चाहिये। इस धरती का रक्षा कवच है पर्यावरण, अतः रक्षणीया है प्रकृति :
सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो विदित होगा कि प्रकृति स्वयं अधिकांश रूप से स्थावर सूक्ष्मजीवों का पिंड ही होती है, चाहे उन्नत पर्वत शिखर हो या गहन वन, सुन्दर उद्यान अथवा कल-कल करते झरने और प्रौढ़ा-सी बहती नदियां, मुक्त पवन या मनुष्य की सेवारत अग्नि- ये सब क्या हैं? ये सब एकेन्द्रिय जीव ही तो (जीव पिंड ही तो) है। . अब मनुष्य के लिये प्रकृति क्या है और दोनों के बीच क्या संबंध रहना चाहिये-यह अधिकांश लोग समझते हैं। प्रकृति की छाया में ही मनुष्य शान्ति और सुख के साथ अपने कार्यकलाप में व्यस्त रह सकता है तथा अपने संरक्षण के साथ अपने कर्तव्यों का भी सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकता है। प्रागेतिहासिक काल में तो मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर ही निर्भर था। फल खाता था, वल्कल पहनता था और निर्द्वन्द वन में विचरण करता था। तब उसके पास न कोई काम था, न काम करने की कला। तब उसके लिये स्वस्थ प्रकृति माँ की गोद से भी बढ़कर सुखकर थी। फिर उसने असि (तलवार), मसि (स्याही) तथा कसि (कृषि) के माध्यम से धंधे पकड़े और कमाना सीखा। वह जब ज्ञान-विज्ञान की दिशा में बहुत आगे बढ़ गया तो उसकी संपन्नता भी बढ़ी जिसके साथ उसका अभिमान भी बढ़ने लगा कि वह प्रकृति का अनुगामी नहीं, अपितु उसका विजेता बन रहा है। उसकी प्रगति के आगे प्रकृति उसके लिये अवरोध नहीं रही। तब वह प्रकृति को भार्या मानने लगा। किन्तु प्रकृति पर अधिकाधिक नियंत्रण की शक्ति पाते हुए मनुष्य का लोभ अतिशय रूप में बढ़ने लगा। तब प्रकृति के साथ उसकी लूट-खसोट शुरु हुई। उसे मात्र भोग्या मानकर वह प्रकृति को नष्ट भ्रष्ट करने लगा। विज्ञान के अति विस्तार के साथ आज मनुष्य के हाथों प्रकृति जीर्ण-शीर्ण होने लगी है, इतनी कि जैसे सारी सृष्टि ही विनाश की कगार पर खड़ी कर दी गई हो। ___ इस धरती ग्रह के लिये फलदायिनी है तो प्रकृति और इसका रक्षा कवच है पर्यावरण। क्या होता है पर्यावरण? धरती पर प्रकृति फलती-फूलती है और प्रकृति का वैसा आवरण जो चारों ओर प्रसारित होता है, उसी का नाम पर्यावरण है। उद्योगों की चिमनियों के जहरीले धुएं से, घातक रसायनों के फैलाव से, मानव की अशुद्ध एवं दुष्ट जीवनशैली से और सबसे बढ़कर मनुष्य की लालसाजन्य हिंसा से प्रकृति का विनाश हो रहा है तो साथ ही पर्यावरण भी बुरी तरह से प्रदूषित हो रहा है। अन्य ग्रहों से जो धरती की रक्षा करती है-ओजोन परत, उसमें भी पर्यावरण के प्रदूषणों ने कई छेद बना दिये हैं जिनमें से होकर अधिक मात्रा में सूर्य की पराबैंगनी किरणें प्रविष्ट होकर धरती की जलवायु
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