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सुचरित्रम्
प्रयोग से यह भी सिद्ध कर लिया है कि इन वनस्पति के जीवों के बीच बात भी होती हैं तो ये संगीत आदि कई ध्वनियों से भी प्रभावित होते हैं। दो वैज्ञानिकों-डॉ. बोगले और डॉ. वेंकस्टर ने वनस्पति पर बहुत प्रयोग किये और साबित किया कि मनुष्य और पौधे दोनों आपस में अपनी चेतना शक्ति का आदान-प्रदान भी करते हैं। पोलिग्राफ के एक संवेदनशील तार से पौधे की टूटी शाखा जोड़ी गई और पौधे ने अपनी चेतना जतानी शुरु कर दी-गेल्वेनो मीटर की सुई घूमने लगी। पता चला कि पौधा प्यासा है-पानी दिया गया, फिर सुई घूमी और पौधे ने खुशी जताई। अन्य अनेक प्रयोगों से वनस्पति की भावाभिव्यक्ति की जानकारी हुई। अभिप्राय यह है कि इन सूक्ष्म जीवों की संवेदनशीलता कहीं न्यून होती है तो कहीं अधिक भी। या कहीं क्या यह भी आ सकता है कि विज्ञान पानी में, वनस्पति में जीव नहीं मानता था, अब प्रयोग द्वारा सिद्ध हए और मानने लगा। ध्वनि तरंगों, प्रकाश की गति और इसी प्रकार की अन्य वैज्ञानिक खोजों और विकास की स्थिति का अध्ययन करें तो पाएंगे कि जैन धर्म-दर्शन में हजारों वर्ष पूर्व यह सब तथ्य मौजूद रहे हैं। यह धर्म अपने आप में वैज्ञानिक धर्म है, लेकिन इसकी धूरी चरित्र पर टिकी है। यही कारण है कि यह धर्म मानवता के लिए उपकारी रहा है और कभी अपनी वैज्ञानिकता का दुरूपयोग नहीं किया है।
स्थावर (सूक्ष्म) जीवों की संवेदनशीलता को आचारांग सूत्र में वर्णित इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। एक आदमी बहरा, गूंगा और अंधा है। इन तीन इन्द्रियों के अभाव में उसका बाहर का संबंध-विच्छेद-सा हो जाता है, परंतु क्या वह सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता? वह बता नहीं सकता लेकिन महसूस तो करता ही है। यही तो संवेदनशीलता होती है। इसी प्रकार सूक्ष्मजीवों में
न्तर प्राणधारा बहती रहती है सो वेदना तो होती ही है। विज्ञान ने इस प्राणधारा को नाम दिया है 'कॉस्मिक दे' (जागतिक किरण) का, जो सभी प्राणियों में प्रवाहित होती है।
विश्व के सभी प्राणियों में सर्वाधिक चेतना, प्राणधारा, विवेक, बुद्धि आदि की दृष्टि से मानव ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और इस नाते उसका सूक्ष्मजीवों के संबंध में विशेष दायित्व भी है। अतः मानव को निर्देश दिया गया कि वह प्रत्येक प्राणी की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझे और यह महसूस करे कि जैसे उसे सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वैसी ही अनुभूति एकेन्द्रिय आदि (सूक्ष्म) प्राणियों को भी होती है। यह दूसरी बात है कि वे उस अनुभूति को प्रकट करने में समर्थ नहीं होते हैं और इस दृष्टि से उनके संरक्षण के प्रति मानव का दायित्व और अधिक गहरा हो जाता है। जैसे ऑपरेशन के समय रोगी को मूर्छित कर दिया जाता है और चीरफाड़ की जाती है। चीरफाड़ से कष्ट जरूर होता है लेकिन मूर्छा के कारण वह उसे उस समय न महसूस करता है, न बता सकता है। यही स्थिति एकेन्द्रिय (सूक्ष्मजीवों) की समझी जा सकती है। ऐसे में उनके प्रति मानव का करु णा भाव प्रभावी रूप से कार्य करना चाहिये। ____ मानव एक विकसित प्राणी है, जबकि स्थावर जीव अतीव अविकसित होते हैं। किन्तु विकास की प्रक्रिया का मूल तत्त्व होता है-गति। विकास की गति निरन्तर चलती रहती है और जीव विकास का इतिहास इस पर पूरी रोशनी डालता है। गति ही सारे नव-निर्माण का आधार बनती है। गतिशीलता ही संसार का दूसरा नाम है। संसार का मतलब ही गतिशील होना है। स्थिरता का नाम
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