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विश्व रचना, व्यवस्था का परिदृश्य एवं संतुलन की सुई
जीव, चेतन या आत्मा के दो भेद बताये हैं-पहला संसारी, जो संसार के गति चक्र में भ्रमणशील है तथा दूसरा मुक्त, जो संसार से मुक्त होकर सिद्ध हो चुकी है (संसारिणो मुक्ताश्च-त. सू. 2/10)। संसारी आत्माओं के भी दो भेद हैं-मन-युक्त और मन-रहित अथवा त्रस और स्थावर। पृथ्वी, पानी व वनस्पति के जीव स्थावर कहे गये हैं तो अग्नि, वायु तथा दो इन्द्रियों से लेकर पांच इन्द्रियों वाले जीव त्रस बताये गये हैं-(समनस्काऽमनस्काः , संसारिणस्त्रसाः स्थावराः, पृथिव्यऽम्बुवनस्पतयः स्थावराः, तेजोवायु द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः - त. सू. 2/11-14) फिर पांच इंन्द्रियों का कथन किया गया है जिनके लक्षण हैं-स्पर्शन (छूना), रसन (चखना), घ्राण (सूंघना), चक्षु (देखना) तथा श्रवण (सनना) इन पांच इन्द्रियों के सिवाय मन का कथन है जो अनिन्द्रिय कहा गया है। जीवों में मन वालों को संज्ञी तथा अन्यों को असंज्ञी कहा गया है। ___ आशय यह है कि उपयोग, ज्ञान, संज्ञा, चेतना ये सब एकार्थवाचक हैं और जीव के अस्तित्वबोधक। जीव है तो तारतम्य से यह लक्षण अवश्यमेव होगा, अन्यथा वह जीव नहीं होगा, अजीव यानी जड़ ही होगा। इन दोनों तत्त्वों का परस्पर रूपान्तरण कदापि नहीं होता। न जीव कभी भी अजीव हो सकता है और न अजीव कभी भी जीव । दोनों तत्त्वों की सत्ता सदैव पृथक् रहती है परन्तु मिलकर विश्व को चलाती है। सूक्ष्म जीवों की संवेदनशीलता एवं उनके संरक्षण से मानवीय गुणों का विकास: ___ यह विश्व जीवों से भरा पड़ा है जिनमें (अधिसंख्या) सूक्ष्मजीवों की अधिकता है। कोई यह प्रश्न खड़ा कर सकता है कि सूक्ष्मजीवों में भला कितना-सा उपयोग हो सकता है, जो उन्हें तनिक भी संवदेनशीलता का बोध करा सके? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सूक्ष्मजीवों की संवेदनशीलता उनके साथ तो निश्चित रूप से है ही, किन्तु उनकी संवेदनशीलता के संरक्षण में यदि मानव जैसा सर्वाधिक प्रबुद्ध प्राणी संवेदनशील बन जाए तो न सिर्फ उन छोटे-छोटे जीवों की रक्षा हो सकेगी, बल्कि स्वयं मानव का भी सर्वाधिक हित सधेगा। एक ओर प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा होगी तो दूसरी ओर दया, रक्षा, करुणा, सहयोग, हार्दिकता जैसे अनेक मानवीय गुणों का विकास भी सहज रूप से हो सकेगा।
स्थावर जीव वास्तव में अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। जैसे एक मिट्टी के ढेले में असंख्य जीव हो सकते हैं या वनस्पति के छोटे-से टुकड़े में भी अत्यन्त सूक्ष्म जीव हो सकते हैं। यद्यपि उनकी चेतना व्यक्त नहीं दीखती है, फिर भी उन्हें सुख दुःख का संवेदन होता है। इनके एक ही इन्द्रिय होती है-स्पर्शन तथा जो उपयोग या ज्ञान होता है वह अनिन्द्रिय होता है। अनिन्द्रिय ज्ञान के दो अर्थ होते हैं-एक तो वह ज्ञान जो मन से होता है और इसका दूसरा अर्थ है ओघ-संज्ञा । आज के वैज्ञानिक भी ओघ संज्ञा की जानकारी करने के लिये प्रयत्नशील है। (आश्चर्य है कि ओघ-संज्ञा की जानकारी प्राप्त कर ली है। यह जानकारी उन्हें वैज्ञानिकों से मिली है।) उन्होंने वनस्पति के संदर्भ में कलेक्टिव माइंड' यानी सामहिक मानस के रूप में इसे व्याख्यापित किया है। वनस्पति को सजीव मानने के बाद विज्ञान ने
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