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चरित्रबल से ही घूमेगा शुभंकर परिवर्तन का चक्र
चरित्र बल न रहा हो और उसने जीवन की उच्चतम सफलता प्राप्त कर ली हो, क्योंकि बिना आत्मबल अथवा मनोबल के कोई भी सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती हैं तथा आत्मबल अथवा मनोबल का अंकुरण मात्र चरित्र बल की धरती पर ही संभव होता है। इसके साथ ही चरित्र बल की वह महिमा है कि जो चरित्र बली होता है, उसके लिए कोई भी साध्य असंभव नहीं होता। चरित्र बल के कोष में 'असंभव' शब्द है ही नहीं। ___ चरित्र बल के संदर्भ में देखें तो मनुष्यों को दो श्रेणियों में बांट सकते हैं-1. चरित्रशील पुरुष एवं 2. चरित्रहीन पुरुष। जो चरित्रशील है, वह सज्जन है और जो चरित्रहीन पुरुष है वह दुर्जन है। सत्
और दूर उनके स्वभाव का परिचय देते हैं। सज्जन के स्वभाव में न्याय होता है, नीति होती है और सदाचार होता ह तथा इसके विपरीत दुर्जन के स्वभाव में पापाचार होता है, पाखंड होता है। इन दो प्रकार-चरित्रशील एवं चरित्रहीन पुरुषों को वैदिक साहित्य में सुर एवं असुर कहा है। गुणानुसार इन्हीं प्रकारों की वृत्तियों को गीता में दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदा कहा है। यह देवलोक के देवों या असुरलोक के असुरों की बात नहीं है। यह बात इसी विश्व में रहने वालों का उनकी वृत्तियों के अनुसार ही विभाजन है। मनुष्य स्तर से जो नीचे उतर गए हैं वे ही असुर हैं और उस स्तर से भी जो ऊपर उठ गए हैं वे ही देव हैं। यों दोनों स्तरों में जो अन्तर है वह अन्तर चरित्र विकास का है। इस दृष्टि से जो असुर है वह सदा ही असुर है, ऐसा नहीं है। वह अपने चरित्र का समुचित विकास करके देव स्तर को प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार अपने चरित्र का पतन हो जाने पर देव भी असुर स्तर तक पहुंच जाता है। अतः इस मूल सत्य को समझ लेना आवश्यक है कि मानव जीवन का नियन्ता
और कोई नहीं, स्वयं उसी का चरित्र है और चरित्र निर्माण जीवन का प्रथम कर्तव्य है, धर्म है। ___महाकवि कालिदास ने कहा है-सज्जनों का जो लेना है, वह बादलों द्वारा पानी लेने और देने के समान ही होता है (आदानं हि विसर्गाय सूतां वारिमुचामिव)। मेघ वापिस जल लौटा देते हैं। किन्तु इस लौटा देने की भी विशेषता है। समुद्र से जो जल वे लेते हैं, वह खारा होता है, लेकिन वर्षा के रूप में जो जल वे लौटाते हैं, वह मीठा होता है। सज्जनों का स्वभाव भी मेघों के समान होता है। वे समाज से जो कुछ ग्रहण करते हैं, वे उसे फिर समाज को ही देते हैं और इस लौटाने की भी एक विलक्षणता होती है। दान करते समय सज्जन पुरुष के हृदय में यह भावना नहीं रहती कि मैं दान कर रहा हूँ। वे दान तो करते हैं, किन्तु वे दान के अहंकार को अपने मन में प्रवेश नहीं करने देते हैं। दान मूल में आदान ही है, पाना ही है। एक पाश्चात्य विद्वान् ने कहा है-"जो कुछ हमने दिया, वह हमने पाया, जो कुछ हमने खर्च किया वह खाया तथा जो हमने छोड़ा वह हमने गंवाया।" (what we gave, we have (got) what we spent we had (lost), what we left, we lost (wasted)। समझने की बात यह है कि जो कुछ हमने दिया, हमने पा लिया और जो कुछ हम दे रहे हैं, उसे हम अवश्य प्राप्त करेंगे, किन्तु जिस सम्पत्ति का न हमने अपने लिए उचित उपयोग किया और न हम उसका दान ही कर पाए, बल्कि मरने के बाद यहीं छोड़ गए तो वह हमारी अपनी नहीं रही। इसी प्रकार मानव चरित्र की उपलब्धि को भी समझना चाहिए। यदि चरित्रशील बनने का उपक्रम नहीं किया तो समझिए कि इस अमूल्य जीवन को नष्ट ही कर दिया। चरित्रहीन बने रहने या बनने का
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