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सुचरित्रम्
ज्यों विशाल और विराट बनता जाता है और उसमें अहिंसा, दया तथा सत्य का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों सोया हुआ मनुष्यता का भाव जागृत होता जाता है। शास्त्रीय शब्दों में मनुष्यता का भाव आना ही मनुष्य होना कहा गया है। मनुष्य को अपने आप से प्रश्न करने चाहिए-'क्या तू प्रकृति से भद्र है या नहीं? तू अपने जीवन में परिवार और समाज तथा ऊपर के घटकों को महत्त्व देता है या नहीं? क्या तू आस पास के लोगों में समरसता लेकर चलता है? क्या तेरे चेहरे में एकरूपता है या अलग-अलग स्थानों तथा कार्यों के लिए अलग-अलग मुखौटे तो नहीं लगा लेता है?' इन प्रश्नों के उत्तर वह स्वयं में स्पष्ट करे और उसके आधार पर आकलन करे कि वह कितना प्रतिशत मनुष्य बन पाया है और अभी कितना प्रतिशत बनना बाकी है।
जीवन की कला के विकास का प्रमाण यह होगा कि आपकी चरित्रशीलता सर्वत्र सहयोग के लिए मन से तत्पर रहती है, आप में ऐसा सहज भाव उत्पन्न हो गया है कि जहां कहीं भी रहें, किसी भी परिस्थिति में रहें एकरूप होकर रह सकते हैं तथा आपके जीवन के हर पहलू में भद्रता, सरलता, एकरूपता एवं चरित्रात्मकता का पूर्ण रूप से समावेश हो चुका है। सरलता की उत्तम कसौटी यही है कि मनुष्य जिस सरल भाव से सुनसान जंगल में अपने दायित्व को निभाता है, उसी भाव से वह नगर की चहल-पहल में अपने दायित्व निभावे। कोई देखे या नहीं उसका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। उसे जो दायित्व निभाना है वह हर हाल में निभाना है-उसकी यही कर्तव्य बुद्धि जागृत रहे। __ चरित्र विकास के साथ जब जीवन की यह कला विस्तार पाती है तो नि:स्वार्थ एवं निश्छल एकता का शीतल बयार सब ओर प्रवाहित हो जाता है और उस प्रवाह के सम्पर्क में जो भी आता है, वह उससे प्रभावित होकर चरित्र निर्माण में जुट जाता है। यह विस्तार पूरे विश्व तक भी हो सकता है
और उस अवस्था में वह विस्तार विश्व के एकीकरण का रूप लेने लगता है। ऋग्वेद में कहा गया है-यह विश्व एक घोंसले के समान है (यत्र विश्वं भवत्येकनीड़म्) और इस एक घोंसले में सभी का शान्तिपूर्ण आवास संभव है। मनुष्य सोचे कि सारा भूमंडल मेरा देश है और यह सारा देश एक घोंसला है जिसमें हम सब पक्षी के रूप में रह रहे हैं। इस विचार के साथ फिर कौनसी भूमि बचेगी जिसको प्रत्येक मनुष्य अपनी न मानें? समस्त विश्व मनुष्य का वतन है और वह जहाँ कहीं भी जावे या रहे तो सबके साथ एकरूप होकर ही रहे। यही चरित्र विकास की कसौटी होगी।
जिस मनुष्य का चरित्र विकसित हो जाता है, वह सहज भाव से पूरे विश्व को देखता है और उसे अपना परिवार मान लेता है और फिर उसी सहज भाव से सबके प्रति अपने कर्तव्यों का सच्चाई के साथ निर्वाह करता है। ऐसा मनुष्य दृष्टा बन जाता है-अपने आपको देखता है-अपने ही गुण दोषों को देखता है तथा उनको सुधारने का प्रयास करता है। चरित्र विकास का यही फल सामने आना चाहिए कि मनुष्य सहज भाव से अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वाह करे तथा इसी में अपने जीवन की सार्थकता समझे। साथ ही वह अपनी चरित्रनिष्ठा को इतना व्यापक रूप दे कि उसकी कार्य क्षमता के घेरे में सम्पूर्ण विश्व का कल्याण एवं मानव जाति का ऐक्य समा जाए। निश्चय मानें कि चरित्र बल के लिए कोई भी साध्य असंभव नहीं:
किसी भी क्षेत्र के किसी ऐसे सफल व्यक्तित्व का नाम शायद कोई नहीं ढूंढ पाएगा, जिसके पास
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