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समूची समस्याओं का हल होगा मनुष्य की चाल व उसके चलन से
शिखर होगा कि वह 'पर' तथा 'शेष' के विकास के लिए 'स्व' को विगलित कर दें। यह विगलन तभी संभव है जब 'स्व' तथा 'पर' में एकात्मकता की अनुभूति होने लगे। यह अनुभूति ही विकसित आध्यात्मिकता का लक्षण बनाती
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11. सकल वसुधा को एक कुटुम्बवत् बनाने का मार्ग : 'स्व-पर' की एकात्मकता के बाद मनुष्य की कर्म-शक्ति अत्यन्त विस्तृत बन जाती है। इसका अर्थ है कि वह पूरे विश्व तक प्राभाविक हो जाती है । चरित्र सम्पन्न महात्मा के लिए उनके आदर्श प्रेम की कोई सीमा नहीं रहती वह प्रेम सम्पूर्ण विश्व को अपनी तरलता से आप्लावित बना देता है। इसका सुपरिणाम इसी रूप में प्रकट होगा कि पूरा विश्व यानी कि पूरी वसुधा एक कुटुम्ब के समान हो जाएगी। पूरी पृथ्वी एक परिवार और सारे मनुष्य, जीव-जन्तु उसके सम्मानित एवं संरक्षणीय सदस्य- वसुधैव कुटुम्बकं की अवधारणा साकार रूप ले लेगी । मानव चरित्र के श्रेष्ठ धरातल पर निर्मित ऐसा मानव मार्ग सर्वोदय का प्रधान माध्यम हो सकता है।
इस चाल-चलन का उद्देश्य हो-पीढ़ियों के लिए असीम आनन्द :
मानव का धर्म क्या है? यदि इसका उत्तर एक वाक्यांश में देना हो तो वह है स्वभाव की अवाप्ति । जैसे पानी का भिगोने का तथा आग का जलाने का स्वभाव है और जब तक यह स्वभाव बना रहता है तब तक ही लोग उन्हें पानी व आग कहेंगे अन्यथा ये स्वभाव खो देने पर उनके ये नाम भी नहीं रहेंगे। यही बात मानव के धर्म के साथ भी होनी चाहिए, लेकिन क्या ऐसा है? मानव चेतना की शक्ति उसके शरीर तक ही सीमित नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति उसके व्यवहार तथा आचरण में भी झलकनी चाहिए। यदि एक विद्वान् का भी आचरण दोषपूर्ण है तो उसे वह सम्मान नहीं मिलेगा जो उसकी विद्वत्ता का होना चाहिए। मानव के साथ यदि उसका धर्म है, स्वभाव है तो उसकी परिणति असीम आनन्द में ही होती है। तभी वह 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का अनुकर्त्ता होता है और सम्पूर्ण प्राणी जगत् को अपने असीम आनन्द का स्रोत मानता है ।
आज का मानव फिर भी अपने धर्म को अवाप्त करने के लिए प्रयत्नशील क्यों नहीं हो रहा है? यह कारण है चाल-चलन का, चरित्र गठन का कि वह अपने धर्म के रहस्य से अनजान है। वह पूरी तरह विभाव में भटक रहा है- पथ से विपथगामी बने रहने पर सही पथ कैसे मिलेगा? उसके लिए पहले ज्ञान की ओर मुड़ना होगा। श्रीमद् भागवत गीता में कहा है- सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मानअपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियां भलीप्रकार से शान्त है, विकार रहित है - ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिानन्द परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है अर्थात् उनके ज्ञान में परमात्म तत्त्व के सिवाय कुछ अन्य है ही नहीं (जितात्मनः प्रशंसस्य परमात्मा समाहितः शीतोष्ण सुखदुःखेषु तथा मानापमानयो - अध्याय 6 श्लोक 7) और यही अवस्था स्वभाव अवाप्ति की होती है । मानव जब इस उद्देश्य की ओर गतिशील बनता है तब ही उसमें वह नयापन झलकने लग जाता है, जिसकी कल्पना मानव के नवनिर्माण के रूप में की गई है। धर्म को प्राप्त करना सम्यक् नीति पर आधारित होता है- साध्य और साधन दोनों की शुद्धता एवं शुभता आवश्यक है। सम्यक् नीति पर आचरण तभी सुगम बनता है जब व्यक्ति की चरित्रशीलता विकसित हो चुकी हो
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