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________________ सुचरित्रम् 484 और उस चरित्रशीलता का चरम एवं परम लक्ष्य यही हो कि वह स्वयं में असीम आनन्द की सृष्टि करेगा और अपने आनंद को सब में परम उदारता के साथ बांटता रहेगा। आनंद बांटने से निरन्तर बढ़ता रहता है। वर्तमान विश्व की कठिन एवं दुःखभरी परिस्थितियों में आन्तरिक आनन्द की चाह बनना सरल नहीं है। जो व्यक्ति आज विभाग में, बाहरी वस्तुओं के सुख में इतना लिप्त है, उसे अपने स्वभाव का भान दिलाना होगा- अपनी अपार शक्ति की पहचान करानी होगी और यही काम है चरित्र निर्माण की प्रक्रिया का । चरित्र विकास के दौरान ही मनुष्य को अपने भीतर भी झांकने का अवसर मिलता है। तभी वह अपने कर्त्ता भाव को भी समझता है और दृष्टा भाव को भी पहचानता है । चरित्रशीलता से चरित्र सम्पन्नता का ही वह मार्ग है जो विकास के अन्तिम छोर तक पहुंचाता है ।
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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