________________
समूची समस्याओं का हल होगा मनुष्य की चाल व उसके चलन से
की तरह नित रूप बदलती रहती है और मनुष्य को छलती रहती है। अपरिग्रह उसके स्थान पर विषमता तथा स्वार्थवृत्ति के कीटाणुओं को समाप्त करता है, वर्ग संघर्ष को मिटाता है तथा मनुष्य निर्भयता और निःशंकता से साहसी बन कर सर्वत्र सुख शान्ति की पताका लेकर सबका नेतृत्व करता है। ___अहिंसा अनेकान्तवाद के रूप में ढलकर सत्य के द्वार पर पहुंचाती है। वह विचार संघर्ष को मिटाती है और समन्वय के मार्ग पर मनुष्य को आगे ले जाती है जहां वह सबके विचारों में से सत्यांश चुन कर सत्य का साक्षात्कार करने के लिए अग्रगामी बनता है। सत्य शाश्वत है, लोककल्याणकारी है और आन्तरिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति एवं अनुभूति है। संसार में सारभूत सत्य ही है-वह समुद्र से अधिक गंभीर, सुमेरू से अधिक अडिग, चन्द्रमंडल से अधिक सौम्य, सूर्यमंडल से अधिक देदीप्यमान, शरद्कालीन आकाश से अधिक निर्मल और गंधमादन पर्वत से अधिक सुरभित है। कहा है-जो शब्द सज्जनता का पावन संदेश देता है, सौजन्य भाव को उद्बुद्ध करता है और जो यथार्थ व्यवहार का पुनीत प्रतीक हो, वह सत्य है। दशवैकालिक सूत्र की चूर्णि में मृषावाद के चार प्रकार कहे हैं1. सद्भाव प्रतिषेध : सही संबंध को नकारना। 2. असद्भाव उद्भावना : जो नहीं है उसे कहना कि वह है। 3. अर्थान्तर : एक वस्तु जो है उससे उसे भिन्न बताना। और 4. गर्दा : पीड़क शब्द कहना। . सत्यवादी इन चारों प्रकारों से दूर रहता है। सत्य के तीन लक्षण हैं-1. कठोर व सावध भाषा का त्याग, 2. मधुर-मृदु-यथार्थ शब्दों का प्रयोग एवं 3. जैसा सोचे वैसा बोले और जैसा बोले वैसा करे। मन सत्य से ही शुद्ध होता है (मनः सत्येन शुद्धयति-मनुस्मृति, 5-109)। सत्य की आराधना के प्रकार हैं1. सत्य वाक्, 2. सत्य कर्म, 3. सत्य विचार, 4. सत्य परिश्रम, 5. सत्य मनन और 6. सत्य आनन्द। ___ अहिंसा आध्यात्मिकता की भी जननी है। उसके ही गर्भ से ब्रह्मचर्य उत्पन्न होता है। यह ब्रह्मचर्य मात्र मिथुन सेवन से निवृत्त होना ही नहीं है, बल्कि सर्वोच्च स्वरूप, ब्रह्म में विचरण करना अथवा आत्मा में रमण करना है, जो आध्यात्मिकता का शिखर कहा जा सकता है। शक्ति की प्रतीक रूप में की जानी वाली समस्त साधना ब्रह्मचर्य के बिना निष्फल है। क्या जल का विलोड़न करने से मक्खन की प्राप्ति हो सकती है? नहीं। वैसे ही बिना ब्रह्मचर्य की उपासना के किसी भी प्रकार की शक्ति का सर्जन, उपार्जन या सम्पादन नहीं हो सकता है। अनन्त आत्मशक्ति के स्रोत को अनावृत्त करने का एक ही साधन है-ब्रह्मचर्य, जो सर्वत्र और सर्वदा स्थिरता की उपलब्धि प्रदान करता है। ब्रह्मचर्य की तीन अर्थों में साधना की जानी चाहिए-1. वीर्य रक्षण. 2. आत्म चिन्तन एवं 3. विद्याध्ययन और आत्म रमण।
समग्र व्यवस्था एवं जीवनशैली का समुचित निर्धारण ऐसी व्यापक एवं विशद् स्वरूप वाली अहिंसा के माध्यम से ही संभव हो सकता है। आज मानव-चरित्र के नवनिर्माण के साथ अहिंसा को ही अपनी चाल बनाने की नितान्त आवश्यकता है।
479