SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् 478 प्रकृति है, स्वाभाविकता है, क्योंकि हिंसा की विकृति वैभाविकता से उत्पन्न होती है। अहिंसा का आचरण - पथ अति विस्तृत है। इसका सामाजिक रूप है अचौर्य व्रत । जीवन में अर्जन अथवा निर्वाह हेतु किसी भी रूप में चोरी के कुकर्म से बचा जाए। चोरी की बड़ी बारीक व्याख्या की गई है। बिना दी हुई अथवा बिना आज्ञा के तिनका तक लेना चोरी है। आज के जटिल औद्योगिक युग में शोषण, दमन या श्रमहरण जैसे कार्य भी चोरी में ही आते हैं। अतः जो सम्पूर्ण नैतिकता के साथ ही अर्जन करता है उसी से अपना निर्वाह चलाता है वही चोरी के कुकर्म से बच सकता है। चौर्यकर्म के मुख्य चार कारण माने गए हैं 1. लाभ की अंधी लालसा : पहले लागत जितना ही लाभ लेने की परिपाटी थी, फिर भावों के कृत्रिम उतार चढ़ाव से भारी लाभ कमाने की प्रवृत्ति चली और अब तो कैसे भी हो- अपराध करके, अनैतिकता करके या मानव रक्त को चूस कर भी लाभ कमाने की अंधी लालसा चल पड़ी है। इससे धनी अधिक धनी और गरीब अधिक गरीब होता गया है। 2. गरीबी या बेकारी की विवशता : धनाभाव में अपनी आवश्यक जरूरतें भी पूरी नहीं होने के कारण अथवा कुसंस्कारों से वृत्ति बिगड़ जाने के कारण नाना प्रकार से चौर्य कर्म होता है। समाज की शान्ति इस कारण भंग होती रहती है और कभी अराजकता भी फैल जाती है। 3. फिजूलखर्ची : समाज सुधारों के अभाव में अथवा अपने धन का आडम्बर दिखाने के लिए विवाह आदि समारोहों में भारी फिजूलखर्ची की जाती है । यह सामाजिक कुप्रथाओं तथा दुर्व्यसनों 'सेवन से भी होती है । 4. यश कीर्ति की कामना : कीर्ति यानी नामवरी के लिए कवि या लेखक दूसरों की रचनाएं चुरा कर अपना नाम करते हैं, व्यापारी दूसरों का धन - माल उड़ाते हैं तो साधु संत भी पतित होकर अपने गुरुओं के नाम से लोगों को ठगते हैं और अपनी पूजा करवाते हैं। अहिंसा का आर्थिक प्रयोग भी कम महत्त्व का नहीं है। संविभाग एवं मर्यादाओं का मार्ग दिखाती हुई हिंसा समाज में सभी पदार्थों का विकेन्द्रीकरण कराती है जिससे संचय की प्रवृत्ति नहीं पनपती और अर्थ शरीर के सब भागों में रक्त संचरण के समान समाज के किसी भी भाग या वर्ग को अर्थाभाव में नहीं रहने देती है । इच्छा एक असीम अन्तरिक्ष के समान होती है, जिसकी कोई परिधि या पराकाष्ठा नहीं। यह एक मृगतृष्णा है। अर्थ और पदार्थ की अंधी दौड़ में, होड़ में मानव अपने शरीर, मन, वचन, व्यवहार तथा आत्मा और परिवार, समाज, राष्ट्र के साथ कितना अन्याय कर रहा है - इसका लेखा जोखा सभी जानते हैं। इस मशीनी युग में मशीनें बंद नहीं हो सकती और न उनसे बचा जा सकता है, किन्तु मानव अपने जीवन को मात्र मशीन बनाने से तो बच ही सकता है और यह बचाव करती है अहिंसा, अपने इस सामाजिक स्वरूप के साथ कि अर्थ का संविभाग करो और पदार्थ की मर्यादा लो। इसी स्वरूप को अपना कर उपभोक्तावाद को भी सीमित किया जा सकता है। कहा है - जो कामनाओं के वशीभूत रहता है वह जीवन को निष्प्राण बना लेता है किन्तु निष्काम वृत्ति वाला पुरुष सदा सुखी रहता है । इच्छा के अनेक नाम हैं- आशा, लालसा, कामना, तृष्णा आदि, जो वेश्या
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy