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समूची समस्याओं का हल होगा मनुष्य की चाल व उसके चलन से
वर्तमान विचारों के प्रति भी वैसी ही ग्रहणशीलता रखी जाए ताकि नये-पुराने का श्रेष्ठ सम्मिश्रण तैयार हो सके। किसी भी तरफ का आग्रह न हो, अच्छे-अच्छे का चयन हो और एक समन्वित एवं व्यावहारिक कार्यप्रणाली का निर्धारण हो जाए। न सब नया हो और न सब पुराना बल्कि सब अच्छा पुराना भी हो और सब अच्छा नया भी हो, लेकिन चाल जो तैयार हो वह नई हो, सब को अपनी ओर खींचे तथा मानव-चरित्र का नव विकास करे।
चरित्र के बिना मनुष्य का नवनिर्माण नहीं, संयम के बिना चरित्र नहीं और धर्म के बिना संयम नहीं यानी कि मूल आकर मानव धर्म पर ही टिकता है, जहां मूल्यों का मान है, गुणों की गरिमा हो तथा आचरण का आधार हो। इसी संदर्भ में एक आचार संहिता जैसी जीवनशैली का प्रवर्तन, प्रभाव
और प्रसार अनिवार्य है। इस बिन्दु पर पहले काफी चर्चा हो चुकी है, अतः यहां संक्षेप में उसकी रूपरेखा के विचार से ही कुछ चर्चा करें। पहले हिंसा की रौद्रता को समझें। प्रश्न व्याकरण सूत्र (11) में कहा है-कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ बिना प्रयोजन के। कुछ क्रोध से, कुछ लोभवश और कुछ अज्ञान से हिंसा करते हैं। परन्तु हिंसा के कटु परिणामों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है। हिंसा अर्थात् प्राणवध (दस प्राणों में किसी एक या अधिक प्राण को आघात पहुंचाना) चंड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणा रहित है, क्रूर है और महाभयंकर है (अट्ठा हणंति, अण्णट्ठा हणंति, कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, न य अवेदयिता, अस्थि हु मोक्खो, पाणवहो चंडो, रुद्दो, खुद्दो, अणारियो, निग्घिणो, निसंसो, महाब्भयो-प्रश्न व्याकरण सूत्र )। हिंसा के परिप्रेक्ष्य में अहिंसात्मक रचना की उपादेयता को समझें। अहिंसा में वह अचूक शक्ति है, वह असीम सामर्थ्य है जो हिंसा की कैसी भी आग हो उसे शान्त कर सकता है। हिंसा की कराल कालाग्नि से सारी मानवता संत्रस्त है, जिसकी सुरक्षा अहिंसा रूपी वर्षा से ही हो सकती है। अहिंसा वह परम तत्त्व है जिसमें जीव मात्र के प्रति समता, सद्भावना एवं सद्बुद्धि का संचार होता है। अहिंसा के सार्वभौम सर्वसिद्ध स्वरूप के सामने हिंसा की समग्र गतिविधियां स्वयं निरस्त व निस्सार हो जाती हैं। यह भगवती स्वरूपा अहिंसा भयभीतों के लिए शरणस्थली है, वैचारिक तुच्छताओं में फंसे हुओं के लिए विचारों की विशालता की जननी है तथा विषमताओं से ग्रस्त लोगों के लिए समता, मानवता, गुणवत्ता आदि चारित्रिक गुणों की एकाकी स्रोत है।
यह अहिंसा एकरूपा ही नहीं है। जहां इसका नकारात्मक पक्ष प्राणघात न करने का है, वहां उससे भी अधिक महत्त्वपर्ण उसका सकारात्मक पक्ष है कि प्राणों का रक्षण एवं संरक्षण किया जाए। तदनसार अहिंसा की पीयषवर्षिणी वह धारा है जिसके संस्पर्श से समस्त मानव जाति अपने चरित्र पटल पर विश्वशान्ति. पारस्परिक प्रेम. आत्मवत मैत्री के शभग समन खिला सकती है और यद्ध. महायुद्ध, विश्व युद्ध तक से मुक्ति पा सकती है। वस्तुतः अहिंसा मानवीय चेतना की आधारशिला है। कहा है-संसार रूपी मरुस्थल में अहिंसा ही अमृत का झरना है, अहिंसा अमृत है, अमृत वर्षिणी है। (अहिंसैव हि संसारमरावमृत सरणिः-आचार्य हेमचन्द्र), अहिंसा सब प्राणियों के लिए अमृत के समान है (अहिंसाया च भूतानातम्तत्थाय कल्पते-मनुस्मति), जीवों को सुख प्रदान करने वाली कौन है? अहिंसा है (का स्वर्गदा प्राणभूतां? अहिंसा-शंकराचार्य)। यों अहिंसा मनुष्य की मूल
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