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________________ समूची समस्याओं का हल होगा मनुष्य की चाल व उसके चलन से में अधिकांशतः एकरूपता होती थी। वह एकरूपता प्रभाव डालती थी। यह एकरूपता इस सिद्धान्त को लेकर होती थी कि व्यक्ति का 'स्व' तब धन्य होता है जब वह शेष विराट् में लय हो जाए। धर्म यह तो सिखावें ही, बल्कि यह भी करे कि उस विराट को सीमाओं में बांधा भी जाए। यही विकास का अन्तिम छोर माना गया। वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार इस विकास के चार मूल तत्त्व माने गए 1. आस्तिकता : विकास या धर्म का पहला चरण था कि आदिम मनुष्य प्रकृति से चमत्कृत हुआ और वह मुख्य वस्तुओं को देवता मानने लगा। उसका ज्ञान अल्प था सो उनमें विश्वास भी करने लगा, उन्हें पूजने भी लगा। यों मानसिक रूप से आस्तिकता का जन्म हुआ। ___ 2. अहं : दूसरा चरण जब शुरू हुआ जब उसका ज्ञान बढ़ा, अनुभव बढ़ा और उसमें 'मैं पन' जागा। व्यक्तित्व अहं के साथ समूह का भी अंह होता है और वही अहं राष्ट्रवाद, पूंजीवाद या समाजवाद के रूप में सामने आया। जैसा भी अंह हो, वह सदा निषेधात्मक और हठवादी होता है। अहं अंश है और शेष पूर्ण अस्तित्व। अहं और शेष मिलकर विश्व या धर्म की समग्रता का मान दिलाते हैं। 3. परस्परता : तीसरा चरण शरू हआ, जब अहं ने शेष के साथ अपने संबंधों की समीक्षा की। अहं को लगा कि अकेले से सब कुछ नहीं होता है। स्व और पर मिलते हैं तभी कोई व्यवस्था चलती है। यों परस्परता अथवा अन्योन्याश्रितता का भान हुआ। यह सामाजिकता का प्रारंभ है। 4. अहिंसा : सामाजिकता का विकास अहिंसा के रूप में प्रस्फुटित हुआ कि उसका निर्वाह हिंसा, घृणा या वैर के बल पर नहीं किया जा सकता है। सच्चा विकास अहिंसा की शक्ति से ही संभव हो सकता है। चरित्रशीलता की उन्नति हो, सबके कदम सद्भावना और समता की ओर बढ़ें और सारे विश्व में प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाए-आज इस साध्य की दिशा में गति करने की क्रियाशीलता जागने लगी है। इस वैज्ञानिक अवधारणा के उपरान्त भी संस्कृति एवं सभ्यता के विकास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य ने जितना अपना पाशविक स्वभाव (हिंसा आदि का आचरण) छोड़ा है और मानवीय स्वभाव (अहिंसा एवं संबंधित चारित्रिक गुण) को अपनाया है, उतनी ही उसकी संस्कृति और सभ्यता उन्नत होती गई है। धर्म की इसमें प्रधान भूमिका रही है। इस विश्लेषण का अभिप्राय यह है कि धर्म चक्र के प्रवर्त्तन, मनुष्यता के निर्माण या सामाजिकता के विकास आदि में इन महाजनों अर्थात् महापुरुषों का रचनात्मक योगदान रहा है। उनके समय में जन-जन में नया उत्साह जागा है तथा नया-नया कृतित्व प्रकट हुआ है। किन्तु अनेक कारणों से जन-जन में शिथिलता और निष्क्रियता भी आती रही है और ऐसे में नये-नये महाजन विश्व पटल पर आते रहे हैं और धर्म तथा विकास को नया क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करते रहे हैं। यह निश्चय माने कि नया महापुरुष कहीं से अवतरित नहीं होता है, अपितु पुरुषों के बीच में से ही एक या कुछ पुरुष आगे आते हैं और अपने ज्ञान, अनुभव तथा बलिदान की शक्ति से धर्म के स्वरूप को निखारते हैं, चरित्रशीलता को नये आयाम देते हैं तथा सोये हुए जन-मन को सर्वांगीण प्रगति के लिए तत्पर बनाते हैं। ये कार्य उन्हें महानता का सम्मान देते हैं। यह जन-सम्मान होता है, तब पुरुष महापुरुष बन 473
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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