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________________ सुचरित्रम् चांटा और जड़ दे। बापू हंसे, बोले-'फिर तुम क्या करना चाहोगे?' वह रोष सहित बोला-'एक ही जगह उसके दो चांटें मारना चाहता हूँ।' तब बापू ने समझाया-'तुम दो मारोगे, वह चार मारेगा और मारने का क्रम क्या कभी टूटेगा?' शरीर बल से शरीर बल नहीं झुकता, वह झुकता है आत्मबल से। जब तुम उसके सामने दूसरा गाल भी कर दोगे तो वह लज्जित होगा। फिर चांटा मारने के लिए शायद उसका हाथ न उठे। यह भी हो सकता है कि उसका हृदय बदल जाए और वह तुम से अपनी गलती के लिए माफी मांग ले। एक संयमी साधक मुनि एक नगर के मुख्शय पथ से निकल रहे थे तभी एक दुकानदार ने उन्हें रोका और अभद्रता दिखाते हुए उन पर अपशब्दों तथा गालियों की बौछार करने लगा। मुनि खड़े हो गए और तब तक मौन खड़े रहे, जब तक वह बोलता रहा। बिना उत्तर के जब दुकानदार थक गया तो चुप हो गया। फिर मुनि बोले-'भाई! क्या तुम्हारी दुकान (दिल) में यही सब कुछ माल था? किन्तु इस माल की मुझे कतई जरूरत नहीं है सो इसे मैं तुम्हारे पास ही छोड़ कर जा रहा हूँ। क्षमा करना, ग्राह्य नहीं होने से मैं कुछ भी ग्रहण नहीं कर सका।' शान्त और सरल भाव से मुनि चले गए और दुकानदार भौंचक्का-सा देखता ही रह गया। ___ ये हैं कुछ उदाहरण, जो सबके लिए मननीय हैं। इन उदाहरणों से महापुरुषों द्वारा आचरित आदर्शों का जो परिचय मिलता है, वस्तुतः वही मननीय है। चरित्र सम्पन्नता मननीय है। महाजनों ने मार्ग बनाया, चलाया, हर युग में महाजन होते हैं : ___ एक नीति वाक्य है-'महाजनो येन गतः स पंथः' अर्थात् महाजन (महापुरुष) जिधर होकर गए, वही जन-जन के लिए मार्ग बन जाता है। महापुरुष जिन आदर्शों को अपने जीवन में आचरित करते हैं और उनसे जो उदाहरण सबके सामने आते हैं, वे सभी के लिए प्रेरणा के स्रोत होते हैं। ऐसे महापुरुषों का समग्र जीवन ही आचरण की आग में तपे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान होता है, जो भविष्य के लिए मार्ग बन जाता है। वे अपने अनुभवों से प्राप्त ज्ञान का जब प्रकाश बिखेरते हैं तो उस प्रकाश में वह मार्ग सबको साफ-साफ दिखाई देता है। उस मार्ग को उन्नति का मार्ग मान कर जन-जन उसका अनुसरण करने के लिए अग्रगामी होते हैं। __ प्रत्येक युग में ऐसे 'महाजन' होते हैं, जो मार्ग बनाते हैं और अनुयायी उसका अनुसरण करके उस मार्ग को चलाते हैं यानी कि उस मार्ग का प्रचलन बढ़ता है। दूसरे शब्दों में इसे इस प्रकार कहिए कि 'विकसित' मनुष्य अपनी चाल बताते हैं और 'विकासशील' मनुष्य उसका चलन बढ़ाते हैं। इस प्रकार चाल चलन बनता है यानी कि सबके लिए चरित्र का गठन होता है। जो मनुष्य को महाजन बनाता है, वह विकास कैसा है, जो उस महाजन के पीछे अनगिनत पांवों को चलने की प्रेरणा देता है? और इस विकास का क्रम चला कैसे? समुच्चय में कहें तो यह विकास धर्म है। धर्म प्रवर्तित होता है और अनुकृत होता है, लेकिन तब जब उसे कोई महाजन मिले। ये महाजन धर्म का स्वरूप बताते हैं और उसके अनुपालन का उपदेश देते हैं। उस समय के अनेक महाजनों द्वारा वर्णित धर्म स्वरूप 472
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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