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शोषण और उत्पीड़न मिटे बिना प्रेम कहां? प्रेम बिना समता कैसी?
जीवन में समता को अपना लक्ष्य बना लिया तथा जीवन के अथ (आरंभ) से इति (समाप्ति) तक उसी लक्ष्य का अनुसरण किया तो निस्सन्देह उसका जीवन धन्य हो जाएगा। समता संकुचित होती भी नहीं है तथा उसे संकुचित दायरों में कैद करने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। समता सबके लिए होती है और यदि सबके लिए न हो तो वह समता ही कैसी?
समता ही वह कड़ी है जो मानव-मानव के बीच भावात्मक एकता स्थापित कर सकती है। समभाव से जब हृदय आलोकित हो जाता है तो वहां कोई विषमता शेष नहीं रहती और समूची व्यवस्था समता पर आधारित बना दी जाती है। भारतीय संस्कृति का स्वर पुकारता रहा है-अरे मनुष्य! तेरा आनन्द स्वयं के सुख भोग में नहीं है, स्वयं की इच्छापूर्ति में ही तेरी परितृप्ति नहीं है, बल्कि दूसरों के सुख में ही तेरा आनन्द छिपा हुआ है। दूसरों की परितृप्ति में ही तेरी परितृप्ति है। तेरे पास जो धन है, सम्पत्ति है, बुद्धि है-वह सब किस लिए है? तेरे पास जो ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि है, उसका हेतु क्या है? क्या यह सब कुछ स्वयं की सुविधा के लिए ही है? अपने सुखभोग के लिए तो एक पशु भी अपनी शक्ति का प्रयोग करता है-अपनी कलाबाजी से खुद की रक्षा करता है, इच्छापूर्ति करता है। फिर पशुता और मनुष्यता में अन्तर क्या है? मनुष्य का वास्तविक आनन्द स्वयं के सुखभोग में नहीं, बल्कि दूसरों को अर्पण करने में है। मनुष्य के अपने पास जो उपलब्धि है वह अपने बंधु के लिए है, पड़ौसी के लिए है, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए है। यही सच्ची मनुष्यता है और यही समता साधना है।
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