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सुचरित्रम्
उभर आवे। अपनी मान्यताओं पर दृढ़ता हो परन्तु दूसरे को समझा कर सहमत बनावें किन्तु हठ कदापि न हो। सभी मान्यताओं का सम्मान करें, श्रेष्ठताओं का चयन करें और सत्य के अधिक समीप जावें-यह होती है सहमति की प्रक्रिया। धर्म के क्षेत्र की ही बात नहीं, सहमति की यह प्रक्रिया सभी क्षेत्रों में सार्थक रीति से अपनाई जा सकती है। सहमति सबको साथ में जोड़ती है।
सहमति की परम्परा प्राचीनकाल से भारत में प्रचलित थी और सहमति से समाज का ही नहीं, राज का कामकाज भी चलाया जाता था। सच पूछे तो यह परम्परा लोकतंत्र से भी श्रेष्ठतर मानी जा सकती है। अल्पसंख्यक सदा असन्तुष्ट रहते हैं। किन्तु सहमति की परम्परा में किसी को असंतोष नहीं-अदने से अदने को भी नहीं। अतः आज फिर से सहमति की परम्परा प्रारंभ की जा सकती है। प्रयोग अपने परिवार, ग्राम सभा या सामाजिक संस्था से शुरू किया जा सकता है कि वहां प्रत्येक निर्णय सामूहिक रूप से ही लिया जाए। यही प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र संघ तक भी फैलाई जा सकती है। इससे पूरा क्षेत्र जागृत होगा तथा हरेक व्यक्ति सोच समझ कर अपने विवेक को सक्रिय बना सकेगा। __ सहमति के मार्ग से ही समता का साध्य पाया जा सकेगा, क्योंकि सहमति सबको जोड़ेगी और समता उन्हें एक सूत्र में बांध देगी। यह बंधन जो होगा वह प्रेम का बंधन होगा। प्रेम की सरसता तब सब ओर फैल जाएगी। प्रेम वहां पर फल-फूल नहीं सकता है जहां पग-पग पर अन्तर्विरोध जन्म लेते हैं तथा असहमति एवं असन्तुष्टि की नागिनें फुफकारती हैं। अन्तर्विरोध की स्थिति इस तथ्य को बताती है कि वहां पर चरित्र का अभाव है। चरित्रहीनता इस स्थिति को विषम बनाती रहती है, इसलिए सहमति की प्रक्रिया को चलाने के लिए चरित्र निर्माण तथा विकास प्राथमिक रूप से अनिवार्य माना जाना चाहिए। निर्दोष चरित्र ही वास्तव में सच्चा जीवन है (जीवित चारू चरित्रमुक्तम्सुभाषित रत्न संदोह), जो सम्यक् चरित्र वाला होता है, वही गुणज्ञ होता है (यस्यास्ति चरित्रमसौ गुणज्ञः-पर्व कथा, मौन एकादशी)। मन, वचन और काया की समस्त परपीड़क पापमय प्रवृत्ति का त्याग करना ही चरित्र माना गया है (सर्व सावधयोगानां त्यागश्चचरित्र-मिष्यते-योगशास्त्र)। चरित्रगठन से अन्तर्विरोध कम होंगे और सहमति का मार्ग बाधारहित बनेगा। चरित्रगठन का यह लाभ भी होगा कि उससे मनुष्य के मन में संवेदना का अंकुर जमेगा, जो प्रेम के पौधे के रूप पल्लवित हो जाएगा। सच्चे प्रेम के स्वरूप को भी समझ लें कि प्रेम अविभाज्य होता है। प्रेम को मापा भी नहीं जा सकता है कि यह एक का प्रेम है या अनेक का प्रेम हैं। प्रेम में सबको सरस बनाने की क्षमता है तो अपना सब कुछ दे देने की भी क्षमता होती है। प्रेम किसी धर्म से भी आवृत्त नहीं होता। प्रेम अपनी सरसता में सबको सराबोर कर सकता है-यही कारण है कि समता स्थापना से संवेदना और सहयोग का जो वृक्ष लगेगा, उसका फल प्रेम ही होगा। प्रेम सब कुछ होता है और प्रेम में सब कुछ समा जाता है। प्रेम की व्यापकता व विशालता असीम होती है-'ढाई अक्षर प्रेम के जो पढ़े सो पंडित होई।' बहुआयामी समता का लक्ष्य रहे जीवन में अथ से इति तक :
जीवन की सार्थकता को यदि किसी एक गुण से तोलना हो तो वह होगी समता की साधना। समता को समानता माने या समत्व अथवा समत्व योग की संज्ञा दें-मूल में सब एक हैं। जिसने अपने
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