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________________ सुचरित्रम् 462 सम्पूर्ण जीवनशैली का अहिंसक होना ही समता का मूलाधार : महाभारत के भीषण युद्ध का वर्णन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि युद्ध द्वारा प्राप्त विजय निचले स्तर की या घटिया होती है। अतः किसी भी राजा को विजय के लिए युद्ध के सिवाय अन्य उपाय तलाशने चाहिए। निर्णय निकाला गया कि जिस प्रकार आग में लकड़ियां डालने से आग कम नहीं होती, बढ़ती ही रहती है, उसी प्रकार वैर की आग वैर से कभी भी शान्त नहीं हो सकती है बल्कि वैर बढ़ता ही जाता है। वैर की आग को एक बार दबा भी दें, तब भी लम्बे समय बाद किसी भी मामूली से कारण या अकारण भी वह फिर से भड़क सकती है। जब तक क्षमा और सहिष्णुता की सीख पल्ले नहीं पड़े, वैर की आग दब कर भी जलती रहती है। वैर का चलते रहना हिंसा और अशांति का चलते रहना है। वहां डर बना रहता है कि कब कौन किस पर वार कर बैठे ? इस कारण वहां शान्ति कभी नहीं आती । यों युद्ध के अंत में परिणाम क्या सामने आते हैं? अपनों ने ही अपनों को मारा है, एक दूसरे को लूटा है - सताया है और मिला क्या सिर्फ विनाश ? विजय पराजित के पास नहीं रहती तो क्या विजयी के पास भी रहती है ? वास्तविकता में नहीं । ऐसे में यह समस्या सामने आती है कि कोई भी राजा या शासक अपने शत्रुओं को बिना युद्ध के कैसे परास्त करे? इसका उत्तर दिया गया है कि जो राजा या शासक अपनी प्रजा का कल्याण चाहता है, उसे युद्ध हर कीमत पर हर समय टालना चाहिए। सबसे पहले वह अपने पर, अपनी कामनाओं, वासनाओं एवं दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करें। तब शत्रुओं को जीतने की बात सोचे । अधर्म से वह अगर पूरी पृथ्वी भी जीत ले तो उसका अंश भी उसके पास रहेगा नहीं। इन सारे विचारों का उल्लेख उद्योग एवं शान्ति पर्वों (महाभारत) में मिलता है। अटल सत्य यह है कि अहिंसा और शान्ति खोखले नारें नहीं हैं, बल्कि विचारशील एवं बुद्धिमान् जनता के जीवन का स्वर है । अहिंसा और शान्ति को नहीं मानना स्वयं जीवन को नकारना है। घृणा और हिंसा जहां जीवन के नकारात्मक पहलू है, वहां अपने स्वयं की भी नकार है। मनुष्य की तात्कालिन उत्तेजना तथा हिंसा की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को समझ कर ही महाभारत काव्य में ही नहीं, उससे भी बढ़ कर जैन दर्शन में अहिंसा के विवेक को जगाया गया है। जीवन से बढ़ कर मनुष्य या प्राणी के पास अन्य कोई उपहार नहीं और स्वयं के जीवन से बढ़ कर भी मनुष्य की अन्य कोई इच्छित वस्तु नहीं - यह बिना किसी संदेह के प्रत्येक मनुष्य की मान्यता है। जब स्वयं वह सदा जीने की कामना करता है तो वह दूसरे का जीवन छीन कैसे सकता है? भगवान् महावीर ने कहा है"वैर हो, घृणा हो, दमन हो, उत्पीड़न हो, कुछ भी कुकर्म हो, अन्ततः सब लौटकर कर्त्ता के पास ही आता है। यह समझना भारी भूल है कि की हुई बुराई उसके शत्रु पर असर डाल कर वहीं ठहर जाएगी - वह वापस कर्त्ता के पास कर्म बंधन के रूप में लौटेगी। इसलिए उनका उपदेश है कि मनुष्य - मनुष्य एक है, चैतन्य - चैतन्य एक है, जिसे तू पीड़ा देता है वह और कोई नहीं तू ही तो है । जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग सूत्र ) ।" यह अहिंसा ही है जो हृदय और शरीर के बीच, बाह्य प्रवृत्ति चक्र और अन्तरात्मा के बीच, स्वयं और साथियों व समाज के बीच एक सद्भावनापूर्ण
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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