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________________ शोषण और उत्पीड़न मिटे बिना प्रेम कहां? प्रेम बिना समता कैसी? व्यावहारिक सामंजस्य पैदा कर सकती है, मानव-मानव के बीच बन्धुता की मधुर धारा बहा सकती है। मानव ही अहिंसा के विकास पथ पर निरन्तर प्रगति करते करते एक दिन अखिल प्राणी जगत् के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकता है। संक्षेप में अहिंसा क्या है? समग्र चैतन्य के साथ बिना किसी भेदभाव के तादात्म्य-आत्मौपम्य स्थापित करना ही अहिंसा है। अहिंसा में तुच्छ से तुच्छ जीव के लिए भी बन्धुत्व का स्थान है। जो जीव या व्यक्ति सर्वात्मभूत है, सब प्राणियों को अपने हृदय में बसा कर विश्वात्मा बन गया है, उसे विश्व का कोई भी पाप कभी स्पर्श नहीं कर सकता (सव्व भूयप्प भूयस्स... पावकम्मं न बंधई-दशवैकालिक सूत्र)। यह सच है कि अहिंसा की नींव पर ही समता का भवन निर्मित किया जा सकता है। जब समाज, राष्ट्र और विश्व को समतामय बनाने की बात करें तो उसी परिमाण में अहिंसा का फैलाव अत्यावश्यक है। अहिंसा के फैलाव का अर्थ क्षेत्र से ही नहीं है, व्यक्तियों के स्वयं में तथा उनके सामाजिक जीवन से अधिक है। इस रूप में अहिंसा का विस्तार व्यापक और स्थाई तभी हो सकता है कि व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तर तक पूरी जीवनशैली अहिंसक बने। जीवनशैली का अर्थ मात्र खाना-पीना या रहना ही नहीं है। अहिंसा व्यक्ति के तथा सामूहिक संगठनों के भीतर में रच-बस जानी चाहिए कि वहां सोचा जाए तो अहिंसा की सद्भावना के साथ, बोला जाए तो अहिंसा की निश्छलता के साथ और किया जाए तो अहिंसा की आत्मशक्ति के साथ। अहिंसक जीवनशैली की विशेषता यह होगी कि व्यक्ति अत्यन्त संवेदनशील होगा तथा दूसरों की पीड़ा की पहले ही यह सूसगिरी कर लेगा-इसमें वह अपनी पीड़ा को भी भुला देगा कि उसे पहले पर-पीड़ा को मिटानी है। अपने भले की जो भी बात वह सोचेगा, उसे पहले दूसरों के भले के लिए क्रियान्वित करेगा। वह इस बोध के साथ करेगा कि दूसरों के सुख से ही स्वयं को सुख मिलता है। वह जान जाता है कि यदि कोई अपनी ही स्वार्थपूर्ति करेगा तो वह दूसरों के हितों को तो आघात पहुंचाता ही है, लेकिन अन्ततोगत्वा स्वार्थपूर्ति का सुख उसके पास भी नहीं रहता है। यही बात समाज, राष्ट्र व विश्व के हितों के साथ भी लागू होती है। . अहिंसक जीवनशैली में घृणा, वैर या राष्ट्रों के स्तर पर युद्ध का कोई स्थान नहीं रहेगा, इसलिए क्रोध और दबाव का भी काम नहीं बचेगा। वाद होंगे पर विवाद नहीं, सहयोग होगा पर संघर्ष नहींयहं अहिंसा की पहिचान है। यह मूलभूत तथ्य स्मरण में रहना चाहिए कि जीवन का अस्तित्व जीवन पर निर्भर करता है अतः जीवनों के बीच जो प्रकट-अप्रकट अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है, उसे भावनात्मक रूप से पुष्ट करते रहना चाहिए ताकि सब ओर सुखद शान्ति फैली हुई रहे। यह भी याद रहे कि झगड़ों का मूल गुस्सा होता है और वही हिंसा में प्रवृत्ति करता है, वह दूसरे के वजूद को ही नकारता है। यों अहिंसा अमारक, रक्षक व संरक्षक है, विचार समन्वय है, अध्यात्मक बोधक है तथा संविभाग के आधार पर समाज व अर्थ की पुष्टिदायिनी है। परिग्रह संचय पर अंकुश से समता स्थाई व सर्वव्यापी होगी : जैसे-जैसे वैज्ञानिक सुख साधनों में वृद्धि होती जा रही है, वैसे-वैसे मनुष्यों का जीवन अधिक असन्तुष्ट और अशान्त होता जा रहा है। जहां एक ओर साधन सम्पन्न वर्ग ऐश्वर्य भोग में लिप्त है, 463
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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