________________
सुचरित्रम्
के लिए समता का आह्वान करना होगा। समता यों ही नहीं मिल जाएगी, उसके लिए पहले बहुत कुछ करना होगा। व्यक्ति को चरित्र निर्माण के नए पाठ पढ़ने होंगे, समाज के ढांचे में क्रांतिकारी
न लाने होंगे तथा सभी प्रकार की विषमताओं को मिटाने के लिए अथक प्रयत्न करने होंगे ताकि मनुष्य द्वारा ही मनुष्य का शोषण, दमन तथा उत्पीड़न पूरी तरह बंद हो सके। तभी समता की रचना शुरू की जा सकेगी सभी क्षेत्रों में। मनुष्य मात्र मनुष्य की पहिचान होगी, अन्य सारे कृत्रिम भेदभाव मिटा देने होंगे। मनुष्य-मनुष्य में व्यवस्थागत कोई असमानता नहीं रहेगी तथा मनुष्यों को आत्मिक समता का भी भान दिलाया जाएगा। बाहर और भीतर की समता ही जब फलेगी-फूलेगी तभी प्रेम का माधुर्य जन्म लेगा। मानव-हृदय में समता का वास : समानता का मापदंड चरित्र :
मौलिक रूप से सभी मानवों के हृदय में समता का वास होता है, उसका आभास भले ही अपनी-अपनी जागृति एवं योग्यता के अनुसार प्रकट या अप्रकट रूप में अथवा न्यून या अधिक मात्रा में होता हो। लेकिन यह सच है कि सभी तहेदिल से समता या समानता चाहते हैं। यह चाह आज की नहीं, प्राचीनकाल से उसके संस्कारों में ढलती हुई चली आ रही है। सभी धर्मनायकों ने इस चाह को संवारा है और मनुष्य को प्रेरित किया है कि वह इसे पूरी करने के लिए धर्म और नीति के अनुसार सभी प्रयत्न करें। भगवान् महावीर का उपदेश है कि सब में समान आत्मा है और राजा तथा रंक की आत्मा में मूल स्वरूप के नाते कोई भेद नहीं है। उन्होंने कहा-'यदि तुम्हारे सामने कोई आता है तो तुम उसकी आत्मा को देखो, उसे जागृत करने का प्रयत्न करो। उसके नाम, रूप आदि में मत उलझो। तुम आत्मवादी हो सो आत्मा को देखो।' आत्मा के स्थान पर शरीर को देखना, उसके नाम, रूप या जाति को देखना शरीरवादी या भौतिकवादी दृष्टि है, आत्मवादी नहीं। आत्मवादी इन बाहरी प्रपंचों में नहीं उलझता है, उसकी नजर में परख होती है, अतः सूक्ष्म से भी सूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण कर लेता है-स्थूल पर उसकी दृष्टि अटकती नहीं। एक आत्मवादी सूक्ष्म तत्त्व को पहिचानता है तथा उसी का सम्मान करता है। प्रमाणस्वरूप आचारांग सूत्र में कथन आया है कि साधु के समक्ष चाहे कोई सम्राट आवे या तुच्छ दरिद्र भिक्षुक, वह बाह्य स्थिति को न देखे तथा दोनों को आत्मजागरण का समान उपदेश दे (जहा पुणस्स कत्थई, तहा तुच्छस्स कत्थइ। जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुणस्स कत्थई)। आत्म-समानता का बोध वही करा सकता है जिसके चरित्र में सदाशय एवं साहस कूट-कूट कर भरा हो, वरना इस संसार में सोने के मोल सभी बिक जाते हैं और स्वर्ण में ही सभी गुणों का संग्रहण देखते हैं (सर्वगुणा: कांचनमाश्रयन्ति)। स्वर्ण को वही ठोकर मार सकता है, जिसका सत्य का स्वर मुखर एवं प्रखर बन चुका हो। इसकी विपरीत अवस्था का मार्मिक वर्णन ईशोपनिषद् में आता है कि सोने के पात्र से सत्य का मुख ढक दिया जाता है (हरिण्यमयेन पात्रेण सत्यस्य विहितं मुखम्)। इससे स्पष्ट होता है कि यह स्वर्ण सदा से सत्य तथा समता का शत्रु रहा है। स्वर्ण की महत्ता को समाप्त करने पर ही स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है। यह निश्चित है कि मानव हृदय के मूल में स्वर्ण का नहीं, समता का ही वास है।
चरित्र से ही व्यक्ति का मूल्यांकन करो तथा चरित्र को ही समता या समता समाज का मापदंड
458