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शोषण और उत्पीड़न मिटे बिना प्रेम कहां? प्रेम बिना समता कैसी?
बनाओ, यह संदेश प्राचीनकाल से गूंजता रहा है। शरीर, जाति, कुल, वंश या ऐसे ही भौतिक भेदभावों पर धर्म को मत चलाओ। धर्म तो बस चरित्र को देखे, अध्यात्म को देखे कि कैसी ठोस भूमिका पर खड़ा है। धर्म को यह कदापि नहीं देखना चाहिए कि कौन धनी है, कौन दीनहीन, कौन क्षत्रिय महाजन है या कौन भंगी चमार अथवा कौन ऊंचे व्यवसाय के साथ जुड़ा है या कौन नीचे व्यवसाय के साथ। धर्म की दृष्टि समानता की दृष्टि होनी चाहिए, गुणवत्ता की दृष्टि होनी चाहिए ।
इस दृष्टि से इतिहास के पन्नों को देखें तो यह विरोधाभास भी सामने आएगा जब तथाकथित धर्मों ने वर्ण और जाति का भयंकर पक्षपात किया, ब्राह्मण और शूद्र को आकाश व पाताल माना तथा धार्मिक व सामाजिक असमानता के बीज बोए। यह कितनी दर्दनाक बात थी कि शूद्र अर्थात् नीच वर्ण और नीची जाति के लोग धर्मशास्त्र का प्रवचन न सुने और कोई चोरी-छिपे सुन ले तो उसके कानों में पिघला शीशा भर दो। अस्पृश्यता का रोग भी तभी चला और मानव-मानव के बीच पशुता का भेद डाल दिया या उससे भी निकृष्ट कि पशु को गोद में बिठा लो तो कोई हर्ज नहीं, मगर शूद्र को स्पर्श तक करना पाप है और ऐसे स्पर्श के बाद स्नान से शुद्धि जरूरी है। यह अत्यन्त अमानवीय व्यवहार का चलन हुआ, जिसे भारी प्रयासों के बाद अब तक भी पूरी तरह से नहीं मिटाया जा सका है। ऐसी असमानता के विरुद्ध महावीर ने क्रान्ति का शंखनाद किया और स्वर गुंजाया कि जाति से किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र मानने की जरूरत नहीं है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र अपने कार्य की उच्चता या नीचता के अनुसार माना जाना चाहिए (कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइखत्तियो । वइसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा) । यदि कोई ब्राह्मण शूद्र जैसा नीच कार्य करता है तो उसे शूद्र मानना होगा। इसके विपरीत कोई शूद्र उच्चता के कार्य करता है तो उसे ब्राह्मण जैसा सम्मान मिलना चाहिए। समानता की यही मांग थी। कहा गया कि जाति को विशेषता देने का कोई कारण नहीं है (नदीसई जाइविसेस कोई ) । मनुष्य अपने कर्म के अनुसार ही ऊंचा बनता है और तदनुसार ही नीचा। किसी की जीवन की ऊंचाई को नापना है तो उसके चरित्र को देखो - उसके कर्म को देखो और उसके जीवन का मूल्यांकन करो। मनुष्य के मन में जातिवाद, वर्गवाद आदि विभिन्न वादों के जो विषम घेरे खड़े कर दिए गए हैं, उन्हें निर्मम बन कर तोड़ना होगा तथा समता का सजग आह्वान करना होगा कि मनुष्य- मनुष्य और आत्मा - आत्मा के बीच समता एवं समरसता का भाव प्रतिष्ठित करने का प्रबल प्रयत्न किया जा सके।
सर्वव्यापी एवं बहुआयामी समता की स्थापना के लिए आत्मीय समानता का सिद्धान्त सर्वोच्च रहना चाहिए। पूर्वाचार्यों ने विश्व की आत्माओं को समत्व - दृष्टि देते हुए कहा है कि संसार की समस्त आत्माओं को हम दो प्रकार की दृष्टियों से देखते हैं - एक द्रव्य दृष्टि से तथा दूसरी पर्याय दृष्टि से। जब हम बाहर की दृष्टि से देखते हैं- पर्याय की दृष्टि से विचार करते हैं तो सभी आत्माएँ न्यूनाधिक रूप से अशुद्ध स्वरूपी प्रतीत होती है चाहे वह आत्मा ब्राह्मण की हो या चांडाल की, यहां तक कि तीर्थंकर की ही आत्मा क्यों न हो वह जब तक संसार की भूमिका पर स्थित है, न्यूनाधिक अशुद्ध ही प्रतीत होती है। जो कर्म एक आत्मा के लिए बंधन रूप हैं वे सभी आत्माओं के लिए भी बन्धन-रूप होते हैं। किन्तु बन्धन मुक्ति के भी सब के लिए समान उपाय होते हैं। यह पर्याय की
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