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शोषण और उत्पीड़न मिटे बिना प्रेम कहां? प्रेम बिना समता कैसी?
बुद्ध उसे करुणा कहते हैं महावीर उसे अहिंसा कहते हैं वह अकारण है इसलिए नित्य है मोह अनित्य है जो कारण से होता है 'पर निर्भर है सापेक्ष है एक के प्रति है इसलिए दुःरव का मूल है। प्रेम आता है जब मोह जाता है मोह मुक्ति प्रेम से होती है इस कारण प्रेम पा लेना सब कुछ पा लेना है।
प्रेम मुक्ति है। यह आचार्य रजनीश 'ओशो' की रचना है। आज की दुनिया अधिकांशतः मोह को ही प्रेम मान कर चलती है। यहां विषमताओं तथा विरोधाभासों का साम्राज्य है जिसने मनुष्यों के हृदय को संकुचित, व्यथित तथा अदूरदर्शी बना रखा है। वे अपने सोच में तात्कालिकता से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। इस कारण उनके सोच में स्वार्थ रहता है, आग्रह रहता है और कारण-अकारण दृढ़ भी। देह सुख हो या देह रक्षा-उनका ध्यान यहीं तक सीमित है अतः इनमें जिनका सहयोग सहायक होता है, उन्हीं से सम्पर्क और उन्हीं से निकटता की प्रवृत्ति बनी हुई है तो उन्हीं के साथ उनकी नजर में प्रेम किया जाता है। वे प्रेम और मोह का अन्तर नहीं जानते, क्योंकि वे समता को नहीं पहिचानते और उन सद्गुणों को नहीं चिह्नते, जो उनके व्यक्तित्व को बनाते हैं, चरित्र को गढ़ते हैं तथा उनकी दृष्टि को विशालता देते हैं। यही कारण है कि प्रेम और मोह का भेद उनकी सोच और समझ में स्पष्ट नहीं है।
मानव चरित्र को एक वृक्ष की उपमा दें तो उसके पत्ते होंगे छोटे बड़े व्रत-प्रत्याख्यान, उसकी छोटी शाखाएं होगी गृहस्थों के अणुव्रत तथा बड़ी शाखाएं साधुओं के महाव्रत। फिर उस वृक्ष पर जो फूल खिलेंगे, उन्हें समता के फूल कहना उपयुक्त रहेगा और उस वृक्ष का जो फल होगा, वह प्रेम का फल। मोह नहीं, प्रेम का सर्वत्र प्रसार मानव चरित्र के उन्नयन का उच्चतम शिखर होगा। इस प्रेम को भगवान् कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं। __ जब तक मनुष्य हिंसा से घिरा है, विषमताओं से ग्रस्त है, स्वार्थपूर्ति के लिए लालायित है अथवा भौतिक सुखों की मूर्छा है, उसे अपनी, समाज की या विश्व की वास्तविक उन्नति का मार्ग नहीं मिलेगा। प्रेम को पहिचानना तथा उसका रसास्वादन करना तो बहुत दूर की बात है। ऐसे प्रेम को पाने
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