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सुचरित्रम्
लेता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि भौतिक और आत्मिक यों एक हैं, दो नहीं और अगर दो भी मानें तो इस अर्थ में कि जैसे प्रवहमान सरिता के दो तट दो दिखते हुए दो नहीं होते। वे दोनों तट परस्पर जल प्रवाह के स्पर्श से शीतल और एकत्रित बने रहते हैं। यदि कोई नदी में स्नान करने के लिए उतरता है तो किसी एक ही तट से उतरने की अनिवार्यता नहीं रहती। दोनों में से किसी भी तट से नदी में उतरा जा सकता है। इस नदी में वे दोनों तट सहज रूप से मिले हुए ही रहते हैं। स्थिति को स्पष्ट करें तो यह कहा जाएगा कि जब तक नदी का प्रवाह है, प्रवाह में जल है-तट तो दो रहने ही वाले हैं और प्रवाह के स्पर्श के माध्यम के अतिरिक्त वे कभी आपस में एक होने वाले भी नहीं। यही विश्लेषण भौतिक एवं आत्मिक तत्त्वों पर भी लागू किया जा सकता है। इन दोनों के बीच पैदा होने वाला मतवाद आग्रह डालने वाले अहंकार को ही प्रकट करता है। विभिन्न वादों के बीच भी जो विग्रह पनपता है उसका मूल कारण भी अहंवाद ही होता है। शुद्ध रूप में देखें तो सभी धर्म, सिद्धान्त, विज्ञान और वाद उसी को पाने और देने की कोशिश में बने हैं, जो परम सत्य है। यह एकता और अभिन्नता श्रद्धा और विश्वास में से ही दिख सकती है। ___ प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में यही एकत्रितता और एकाग्रता लाना चाहता है। दृढ़ व्यक्तित्व भी हमें दिखाई देते हैं, वे वही हैं, जिन्होंने किसी न किसी प्रकार से यह योग और ऐक्य अमुक मात्रा में साधा है। एक लगन से बंध जाने वाले लोग ही बहत कछ कर गजरते हैं। दढता एवं क्षमता अन्त:प्रवृत्तियों में इसी एकीकरण का नाम है। चरित्र निर्माण एवं विकास की यात्रा में ऐसा एकीकरण निश्चित सफलता की ओर ले जाता है। धर्म, विज्ञान व विकास का अन्तर्सम्बन्ध एवं चारित्रिक प्रगति : ___ वर्तमान समय में धर्म, विज्ञान एवं विकास के बीच कैसा संबंध है? विज्ञान के नये अनुसंधानों से जो नई तकनीकें पनप रही हैं, उनसे पैदा होने वाली नैतिक तथा आध्यात्मिक समस्याओं का निदान । कहां और किस प्रकार खोजें? विज्ञान और विकास के क्षेत्रों में अभी तक जो मानवीय चेहरा गुम है, उसकी प्रतिष्ठा कैसे की जाए? धर्म की नई क्रांतिकारी भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या सबसे पहले यह बुनियादी जरूरत नहीं कि चरित्र निर्माण पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए और निश्चित अवधि के बाद हर वक्त चारित्रिक प्रगति का लेखा-जोखा लिया जाए? ऐसे कई प्रश्न हैं जिनकी ओर व्यक्ति, समाज एवं विश्व का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए ताकि व्यापक रूप से मानव चरित्र के उत्थान के लिए उपयुक्त उपाय किए जा सके। चरित्रशीलता के सर्वत्र विस्तार के साथ-साथ ही धर्म, विज्ञान एवं विकास की समस्याओं का सही समाधान निकाला जा सकेगा तथा इन तीनों साधनों का मानव की चरित्र सम्पन्नता के साध्य प्राप्ति हेतु भरपूर सदुपयोग किया जा सकेगा।
धर्म, विज्ञान एवं विकास के बीच अन्तर्सम्बन्धों के लिए आज सबसे बड़ी समस्या है आर्थिक विषमता। धनवान और गरीब के बीच की आर्थिक खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है-गरीबों की संख्या भी बढ़ती जा रही है और गरीबी की मार भी बढ़ती जा रही है। फलस्वरूप एक ओर हिंसा बढ़ रही है तो दूसरी ओर निराशा भी बढ़ रही है। तरह-तरह की विकास प्रक्रियाओं के कार्यान्वयन
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