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मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है
के उपरान्त भी बहुसंख्या में लोग जीवन निर्वाह की मूल आवश्यकताओं की उपलब्धि तक के लिए कठिनाइयों से जूझ रहे हैं। सारे प्रयत्नों के बाद भी उनकी अनेक समस्याएं अनसुलझी ही रह जाती है। इस परिस्थिति को ध्यान में रख कर सोचते हैं तो मूल कारणों में से एक कारण यह स्पष्ट होता है कि आज जो विकास की धारणा बनी है, वही भूल भरी है। यह भूल गंभीर है, क्योंकि विकास का पूरा ढांचा सिर्फ भौतिकवादी है-उसमें न तो मानवीय आकांक्षाओं का समावेश है और न ही उसके साथ मानव-निर्माण की कोई सार्थक योजना है। मानव के आध्यात्मिक स्वभाव तथा उसकी नैतिकता को उठाने की कहीं भी कोई बात नहीं है। विकास की सारी विचारधाराएं तथा सारी योजनाएं केवल भौतिक, आर्थिक तथा राजनीति दबावों की भूमिका पर बनाई गई है और उनके क्रियान्वयन की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है।
विचारणीय तथ्य है कि मानव का स्वभाव क्या है? अपने स्वभाव के अनुरूप मनुष्य की दो वृत्तियां दिखाई देती हैं-1. नीचे के स्तर पर प्रबल रहती है भोगैषणा अर्थात् जो हमेशा देह सुख की तलाश में रहती है तथा सुख-सुविधा के साधनों को बटोरने में ही लगी रहती है। 2. ऊपर के स्तर पर जागृत होती है त्याग, दया, न्याय, सहयोग आदि की वृत्तियां जो स्व से अन्य के, समाज के और विश्व के हित साधन हेतु तत्पर रहना चाहती है। इन वृत्तियों का निर्माण प्राकृतिक भी होता है तो निर्मित भी। यदि चरित्र निर्माण की ओर ध्यान नहीं है तो प्राकृतिक भोग लालसाएं भी उद्दाम एवं निरंकुश होकर अव्यवस्था तथा अराजकता की कारक बन जाती है, किन्तु ऐसा बहुत कम होता है क्योंकि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चरित्र निर्माण तथा विकास के प्रयास निरन्तर चलते रहते हैं और समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार मूल्य प्रचलन में बने रहते हैं। फिर भी चरित्र पतन के साथ बहुमुखी पतन की राहें भी खुल जाती है। अतः मानव स्वभाव को चारित्रिक प्रगति के साथ अधिकाधिक रूप से श्रेष्ठता में ढाला जा सकता है और निर्मित किया जा सकता है। यह इस तथ्य पर भी निर्भर करता है कि प्रत्येक नागरिक की जागृति के लिए क्या उपाय किए जाते हैं। एक व्यक्ति का व्यवहार भी विभिन्न परिस्थितियों में नई-नई विभिन्नताएं लेकर सामने आता है। ऐसी विभिन्नताएं सबके अनुभव में आती है। जैसे एक कुशल व्यापारी होता है जो अपने व्यापार के कामकाज में पूरी तरह भौतिकवादी रहता है, किन्तु वही व्यापारी अपने परिवार में त्यागवृत्ति को भी अपनाता है, जहां वह प्रेम, उदारता, बलिदान आदि की आध्यात्मिक वृत्तियाँ दिखाता है। ____ अब प्रश्न यही उठता है कि प्रत्येक मानव हृदय में दबी-छिपी ही सही-जो ऊपर के स्तर की वृत्तियाँ हैं, उन्हें जागरूक बना कर सार्वजनिक भले के लिए कैसे प्रयुक्त किया जाए? प्रत्येक व्यक्ति जो अपने परिवार तथा मित्रों के साथ व्यवहार में ऊपर के स्तर की वृत्तियों को अपनाता है-उसमें उन वृत्तियों का बहुत आगे तक भी विस्तार करने की पूरी क्षमता मौजूद होती है। इस विस्तार के लिए उचित शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में भौतिक शिक्षण-प्रशिक्षण के सिवाय पुष्ट मात्रा में आध्यात्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। यहां सच्चे धर्म की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए। यह धर्म मानव धर्म होना चाहिए और वह विश्व धर्म की प्रतिष्ठा प्राप्त करने में सक्षम हो। सच तो यह है कि विकास का नाता जैसा विज्ञान से है उससे भी गहरा धर्म के साथ होना चाहिए।
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