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________________ मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है एवं समाज के सामूहिक हितों को सर्वत्र प्राथमिकता दे। फिर धर्म और विज्ञान दोनों सार्थक बनेंगे और दोनों व्यक्ति व समाज के व्यापक हितों के लिए ही काम करेंगे। भौतिक-आत्मिक दो नहीं, प्रवहमान सरिता के दो तटों की तरह एक है : प्राचीन काल से यही माना जाता रहा है कि धर्म आत्मिक-विज्ञान है और ज्ञान ही विशिष्टता पाकर विज्ञान बन जाता है। इस प्रकार धर्म और विज्ञान संयुक्त रहे हैं तो विज्ञान का आधार भौतिकता तथा धर्म का आधार आत्मिकता के रूप में पृथक्-पृथक् क्यों? दोनों के बीच में भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होना चाहिए। यह जो अन्तहीन ब्रह्माण्ड है, इसको चेतना कैसे समझे? उसकी समग्रता को लेकर एक गहरा घनिष्ठ भाव जो चेतना में समाता है, उसे अध्यात्म का बीज माना जा सकता है। समग्रता को किसी भी तरह चेतना अपने भीतर समाविष्ट नहीं कर पाती है, तब वह व्यग्रता से ही उस समग्रता को स्पर्श करती है। अचानक उस विवशता में से यह ध्वनि निकलती है कि समग्रता चेतना में नहीं समाती तो चेतना ही क्यों न समग्रता में समा जाए? इस प्रयास में एक अन्तर्भाव उत्पन्न होता है जो चाहे क्षण भर ही टिके, किन्तु वह चेतना को धन्य बना देता है। कोई व्यक्ति गर्मी के कारण पसीने से लथपथ हो और उसे शीतल जल से स्नान करने का अवसर मिल जाए-तब जो अनोखी स्वच्छता का अनुभव होता है, उसमें एक झलक मिल सकती है उस परम आनन्द की जो समाविष्ट होने के प्रयास से फूटता है। स्व को खोकर स्वास्थ्य अनुभूति पाने की प्रक्रिया मनुष्य के लिए अनजानी या अनोखी नहीं है। यह प्रक्रिया तो शाश्वत है। परन्तु जहां समग्र को हम अपनी व्यग्रता से लेते हैं, उस व्यग्रता को होमते नहीं, क्रमशः झेलते हैं तो शायद उसी से जन्म मिलता है वैज्ञानिक अध्यात्म को। व्यग्रता की व्यथा को वहां बहलाया, पुचकारा नहीं जाता, जितना कठोर बौद्धिक साधनों से अनुभव में गहरे उतारा और भोगा जाता है। इस साधना से ज्ञान-विज्ञान को जन्म मिलता है। गणित की सृष्टि होती है, जिससे ब्रह्माण्ड अणु में आ जाता है। नारायण नर में अवतीर्ण होता है और समष्टि का अध्ययन व्यक्ति में किया जा सकता है। पहली प्रक्रिया समग्रता में समाविष्ट होने की अभेद श्रद्धा से संबंधित थी तो दूसरी व्यग्रता को झेलने की यह प्रक्रिया भेद-विज्ञान से संबंधित है। दोनों ही प्रक्रियाएं व्यक्ति में उत्कर्षण लाती है तथा उसे उत्कृष्ट बनाती है। आशय यह कि धर्म और विज्ञान अथवा आत्मिकता और भौतिकता का जन्म ब्रह्माण्ड के प्रति चेतना से ही हुआ है। यह अलग बात है कि विभिन्न वृत्तियां विभिन्न रूपों में प्रतिफलित हई। यदि भेद-विज्ञान से अध्यात्म मुंह नहीं मोड़े तो वह वैज्ञानिक स्वरूप ग्रहण कर लेगा। ऐसा अध्यात्म कभी जड़ता या विमुखता को स्वीकार नहीं करेगा। जहां तक इस भौतिकवाद का प्रश्न है, यह अनुभव जन्य है कि जो चेतना संगत हो, वह स्वयं भौतिक विकास प्रक्रिया की अंगभूत होने से सच्ची ठहरती है। भौतिकवाद जब चेतन पर न टिक कर वस्त और बिन्द से आरम्भ होता है तब वह अनिष्टकारी नहीं बनता। वह सत्य साधन की एक पद्धति के रूप में ढल जाता है और आसानी से संस्कृति का उपकरण बन जाता है। ऐसे भौतिकवाद को अध्यात्म अपने में आसानी से खपा और समा सकता है। आत्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों में वही समान रूप से विजेता बन सकता है जिसके पास अलग अहं का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है और विग्रहों के बीच में से जो न्याय की खोज कर 451
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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