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रहस्यों, संभावनाओं तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों से भरा है यह संसार!
चलने के लिये प्रेरित तो किया ही जा सकता है। आखिर महान् विभूतियां प्रेरणा देने के इस महान् गुण के कारण ही अपनी महानता बना सकी है। इन्हीं विभूतियों का भाव प्रकाश आज भी जगमगा रहा हैकेवल उस ओर अज्ञानी लोगों का ध्यान आकर्षित करने एवं सामूहिक जीवनशैली में सदाचरण को प्रवर्तित करने की आवश्यकता है।
एक दृष्टिकोण जो बना हुआ है, वह है सिर्फ बुराई को देखकर ही अमुक धारणा बनाने की वृत्ति। बुराई जरूर देखनी चाहिये, लेकिन उसे अनुपात से कई गुनी बड़ी बनाकर नहीं। यदि ऐसा किया जाएगा, जैसा कि आज किया जा रहा है तो बड़ा आकार करके देखी जाने वाली इस बुराई की काली छाया में अच्छाई की तस्वीर धुंधली ही दिखेगी यानी कि जितनी अच्छाई है, उससे बहुत कम नजर में आएगी। इसका सीधा असर व्यक्ति के हृदय और जन मानस पर यह होगा कि अच्छाई पाने की ललक कमजोर होती जाएगी तथा जो बुराई जोरदार कर सकते हैं वे अपने हौंसले बढ़ा कर खूब बुराई करने पर डट जाएंगे, लेकिन जिनकी बुराई करने की हिम्मत या औकात नहीं है, वे निराश होकर अपने वजूद को भी भूलने लगेंगे। इसका बहुत तीखा असर होगा समाज और राज पर कि व्यवस्था का क्रम टूटने लगेगा, यानी चरित्रहीनता व्यक्ति-व्यक्ति से आगे बढ़ती हुई समाज और राष्ट्र को भी अपने बिगाड़ के घेरे में लेना शुरु कर देगी।
इस दृष्टिकोण को इस रूप में बदलने की जरूरत है कि बुराई को बुराई के परिमाण में ही देखें और अच्छाई को भी उसके परिमाण में, फिर दोनों के बीच के अनुपात का आकलन करते रहें, जिससे सही स्थिति का आभास हो कि कुल मिलाकर बुराई बढ़ रही है या अच्छाई। यदि बुराई बढ़ रही है तो उसके लिए उपाय करें कि अच्छाई का ग्राफ ऊपर उठे। किन्ही अंशों में अच्छाई के आकार को बढ़ा कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए तो वह लाभदायक होगा। एक ओर अच्छाई को प्रोत्साहन मिलेगा तो दूसरी ओर आम लोगों को अच्छाई की ओर आकर्षित किया जा सकेगा। इससे अच्छाई को संरक्षण मिलेगा और उसका विस्तार भी सरल बन सकेगा। __इस तथ्य को समझें कि किसी एक बुरे आदमी के हाथों एक अपराध होता है यह सभी देखते हैं, लेकिन अनेकों व्यक्तियों के सद्व्यवहार से अनेक अपराध रुकते हैं, इस अच्छाई पर किसी की नजर मुश्किल से ही जाती है। यह भी आम तौर पर होता है कि दस बार अच्छा व्यवहार करने के बाद किसी कारण विशेष से केवल ग्यारहवीं बार कोई खराब व्यवहार कर लेता है तो दस अच्छाइयों को भुला कर सिर्फ एक बुराई को इतनी बड़ी बना दी जाती है जैसे कि उस व्यक्ति ने अच्छा व्यवहार तो कभी किया ही नहीं था। इसी वृत्ति या मानस को बदलकर सम दृष्टिकोण से संसार के वातावरण को देखने और परखने का स्वभाव बनाना चाहिये। एक बुराई को ही इतनी बड़ी करके देखी जाए कि व्यक्ति और व्यवस्था सबको कोसने लगें, सारे जमाने को दोष देने लगें और आगे बढ़ते हुए सारे संसार को ही बुरा बताने लगें तो आखिर होगा क्या? संसार और जमाने से नफरत करने लगेंगे और अपने आपको भी सुधार नहीं पाएंगे। 'माया मिले न राम' वाली हालत हो जायेगी, हो क्या जाएगी, शायद आज ऐसी ही हालत हो रही है।
अतः दृष्टिकोण ऐसा भी बनाना चाहिये कि हमारी आलोचना एकांगी न हो और दोषों को दिखाते
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