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सुचरित्रम्
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समाज में तथा सर्वत्र वह व्यक्ति अपनी उस चारित्रिक छवि के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, सच्चा और प्रामाणिक माना जाता है कि उसके साथ कोई भी आंख बन्द करके पूरे विश्वास के साथ अपना व्यवहार चला सके। ऐसी छवि का अंकन एक प्रकार से चरित्र निर्माण का दूसरा चरण माना जा सकता है।
चरित्र निर्माण का तीसरा चरण उस व्यक्ति को महानता की ओर गतिशील बनाता है । बिम्ब का उभार एवं छवि की स्थापना से विभूति बनने की महायात्रा आरंभ होती है। उस पुरुष का ओज, प्रभाव और सामर्थ्य तदनुसार ऐसा प्रभाविक बनने लगता है कि लोग उसके मुख मंडल के चारों ओर एक आभा-सी चमकती हुई देखने लगते हैं। वह पुरुष अपने स्वार्थों से ऊपर उठ जाता है, बल्कि अपने निजत्व को भी महान् साध्य के हित में न्यौछावर करना शुरु कर देता है। उसका साध्य होता है एवं सद्भाव के साथ सारे संसार का बन जाना तथा मानवता के समुन्नत मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा करना । यह जीवन शैली उस चरित्रनिष्ठ व्यक्ति को महानता की पंक्ति में बिठा देती है ।
वस्तुतः चरित्र सम्पन्नता की महत्ता अपूर्व होती है। इसके लिए इस संसार के विशाल रंगमंच का गहराई से अध्ययन करते रहना चाहिये ।
संसार एवं चरित्रबल सदा एकीभूत रहे हैं और रहेंगे, तभी संसार चलेगा :
दृष्टिकोण का सीधा-सा अर्थ है कि दृष्टि किस कोण से डाली जा रही है। कोण अनेक होते हैं और भिन्न-भिन्न कोणों से दृष्टि डालने पर भिन्न-भिन्न दृश्य तथा मंतव्य सामने आ सकते हैं। ऐसा एक तत्त्व, विचार या पदार्थ के स्वरूप के संबंध में भी प्रतीत हो सकता है। इसी सत्य को इस ऋषि वाक्य में कहा गया है 'एको सद्, विप्राः बहुधा वदन्ति' । इस विचार दशा को इस रूप में भी कहा गया है कि 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाः'। इन उक्तियों का तात्पर्य यह है कि एक ही तत्त्व, विचार या पदार्थ का विद्वत्जन भिन्न-भिन्न प्रकार से विश्लेषण करते हैं। यदि इसमें एकान्तिक दृष्टि अपनाई जाय तो भ्रम एवं विवाद का वातावरण फैल सकता है, किन्तु अनेकान्त दर्शन अथवा स्याद्वाद : के सिद्धान्त ने इस बहुधा विश्लेषण को सत्य के साक्षात्कार का साधन बना दिया । तत्त्व या पदार्थ के सभी पहलुओं को देखना- समझना तथा सामंजस्य पूर्ण समीक्षा से उन पहलुओं में स्थित सत्यांशों का संचय करके पूर्ण सत्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना इस सिद्धान्त का लक्ष्य है। सत्य शोधन की यह प्रक्रिया ही फलदायक है तथा सत्य शोधकों द्वारा अपनाई जानी चाहिये ।
यहां इस सिद्धान्त के उल्लेख का संदर्भ यह है कि संसार विषयक धारणा में इस सिद्धांत का प्रयोग किया जाना चाहिये। यह सही है कि संसार में राग, द्वेष रूपी विकारों के फैलाव से वायुमंडल शुद्धता अधिकांश रूप में प्रभावित होती है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये कि संसार सर्वथा विकृत स्थल ही है। इसी संसार की भूमि पर महान् विभूतियों ने जन्म लिया है, इसकी माटी से सुसंस्कार पाये हैं तथा अपने पावन उद्देश्यों से सर्वक्षेत्रीय उन्नति के नये मार्ग उद्घाटित किये हैं । परन्तु यह भी सही है कि हाथ की सभी अंगुलियाँ एक सी नहीं होती और संसार के सभी व्यक्ति एक दिशा में साथ-साथ नहीं चल सकते। इसके उपरान्त भी अधिकतम व्यक्तियों को सन्मार्ग पर