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मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है
6. एक मुक्तक-"क्रोध स्वर्ग को भी नरक बना देता है, . क्रोध खुशियों को भी आग लगा देता है। ..
. . .. इतिहास साक्षी है, इस बात का अभय, .
.. क्रोध उपवन को भी वीरान बना देता है।" क्रोध के बाद क्रम है मान, माया तथा लोभ का ___ शिष्यों की गोष्ठी में चर्चा चल रही थी कि नरक में कौन जाता है? गुरु ने शिष्यों से पूछा कियह प्रश्न कौन पूछ रहा है? एक शिष्य ने कहा-मैं। गुरु तुरन्त बोले-बस यही 'मैं' नरक में जाता है। 'मैं' ही नरक है और 'मैं' ही नरक में ले जाने वाला है। छोटा सा व सुन्दर सा स्पष्ट समाधान सुनकर सारे शिष्यों को सम्यक् बोध हो गया। स्थानांग सूत्र में अहंकार को मदस्थान कहा है और इसके आठ प्रकार बताये हैं-1. जाति, 2. कुल, 3. बल, 4. रूप, 5. तप, 6. श्रुत, 7. लाभ और 8. ऐश्वर्य मद (अट्ठहिं मय ट्ठाणेहिं पण्णत्तेतंजहा, जाइमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुयमए, लाभमए, इसरिए मए)। इन आठों मदस्थानों का स्वरूप विचारणीय है। जाति मनुष्य मात्र की एक है (मनुष्यजातिरेकेव), फिर भी छोटे-छोटे टुकड़ों पर अभिमान करना कि मैं ऊंची जाति का हूं और वह नीची जाति का है-यह निन्दनीय है। इसी प्रकार कुल, बल, रूप, लाभ और ऐश्वर्य का घमंड करना भी अज्ञान है क्योंकि ये सब संकुचित दृष्टि वाले तथा नाशवान स्थान हैं। यहां तक कि तपस्या और ज्ञान के लिए भी अहंकार करना आत्मघाती माना गया है।
माया और लोभ का चक्र भी किसी कुचक्र से कम नहीं। कपट और लालच के भंवर में जो फंस गया, उसका वहां से निकल पाना अत्यन्त कठिन होता है। ऐसा व्यक्तित्व कौनसा कुकर्म न कर बैठे, इसकी कोई सीमा नहीं। चरित्र निर्माण का मार्ग वहीं से शुरू होता है, जहां से विषय एवं कषाय के विकारों को घटाने-मिटाने का क्रम आरंभ होता है और इन विकारों से पूर्ण मुक्ति से प्राप्त होती है चरित्र सम्पन्नता। यह सतत यात्रा किसी भी मनुष्य के जीवन सुधार की प्रमुख यात्रा होती है जो उसे चरित्रशीलता के उच्चतर आयामों की ओर अग्रसर बनाती रहती है। धर्म और विज्ञान की मजबूरियां मिटाने का वक्त आ गया है :- विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे नित नये अनुसंधानों एवं आविष्कारों ने इस विश्व को जानने और समझने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया है। नित प्रति यह प्रतीति दृढ़ होती जा रही है कि विज्ञान इस विश्व की नई-नई परतों का उद्घाटन करता है। इस दृष्टिकोण ने धर्म और विज्ञान को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। वास्तव में ऐसा लगता है कि विज्ञान ने बुद्धिमत्ता के नजरिए से धर्म को अतार्किक या मिथ्या-सा बना दिया है। कई यह भी महसूस करते हैं कि विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व को परे हटा देता है। दूसरे लोग यह सोचते हैं कि विकासवाद की विचारधारा ईश्वर द्वास सृष्टि रचना तथा संचालन के पूरे विश्वास को ही खंडित कर देती है।
' तो प्रश्न यह उठता है कि क्या दरअसल धर्म विज्ञान के विरुद्ध है? इसका उत्तर जानने के लिए विभिन्न कोणों से धर्म और विज्ञान के संबंधों का विश्लेषण उपयुक्त रहेगा। यों धर्म और विज्ञान के
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