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________________ नई सकारात्मक छवि उभरनी चाहिए धर्म-सम्प्रदायों की आसान बन जाएगी अर्थात् व्यक्ति का जागृत होना और कार्यक्षमता दिखाना, सबसे पहले जरूरी होता है । यह सामर्थ्य व्यक्ति के चरित्र निर्माण तथा विकास से ही प्राप्त हो सकेगा । यों समग्र विश्व की धुरी व्यक्ति के कन्धों पर ही टिकी हुई है- एक बार यह कह दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यक्ति की महत्ता को सभी धर्मग्रन्थों ने भी सुस्पष्ट किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति अर्थात् उसकी आत्मा ही स्वयं की मित्र भी है और शत्रु भी है - सन्मार्गगामी बने तो मित्र है और उन्मार्गगामी बने तो शत्रु । यह आत्मा अपने लिए सुख और दुःख का कर्त्ता भी है और विकर्त्ता भी है (अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठियोः अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य-20/ 37 ) । व्यक्ति जब अपना मित्र बनता है तो अपना सन्मार्गगामी चरित्र बनाता है और उस सन्मार्ग पर परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व को चलने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे चरित्र का निर्माण व्यक्ति के लिए धर्म बन जाता है। गीता में भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए हैं-"व्यक्ति को अपने ही यथार्थ की खोज करनी चाहिए, अपने आपको लांछित नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसकी अन्तरात्मा ही उसकी एक मात्र मित्र है, अन्यथा वही उसकी एक मात्र शत्रु है। एक व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा को मित्र तभी मान सकता है जब उसने उस पर विजय प्राप्त कर ली, किन्तु यदि वह अपनी ही वास्तविकता को अस्वीकार करता है तो अपने ही विरुद्ध युद्ध छेड़ देता है।" कुरान में भी इसी सत्य को समर्थन मिला है - " निशानेबाजी के अभ्यास में निशाने के बिन्दु के समान ही व्यक्ति के जीवन में नैतिकता की जगह होती है। जब निशानेबाज निशाने के बिन्दु को चूक जाता है तो वह मुड़ कर अपने ही भीतर अपनी नाकामयाबी की वजह ढूंढता है । उसी तरह व्यक्ति को भी जीवन की प्रत्येक असफलता के लिए अपने ही भीतर झांकना चाहिए।" (टाइम्स ऑफ इंडिया, सेक्रेड स्पेस) । धर्म, संस्कृति, चरित्र- ये सब एक ही वस्तु विषय के पहलू हैं- एक में दूसरे का समावेश है। जब मनुष्य ही अपनी चरित्रहीनता से अथवा अधर्म और अपसंस्कृति से स्वयं के और समूहों के जीवन को विकृत, विषपूर्ण एवं संकटमय बना देता है तब उसे फिर से इसी त्रिपुटी की शरण में जाना होता है। इनकी शुद्ध छवि वही रहती है, व्यक्ति को ही अपनी दृष्टि में नयापन लाना होता है और वही उसके लिए नई छवि बन जाती है। 441
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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