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नई सकारात्मक छवि उभरनी चाहिए धर्म-सम्प्रदायों की
सिवाय अन्य लोगों को होता है। लोकहित के कारण ही उन सिद्धान्तों की सार्थकता प्रकट होती है। स्व का सुधार होगा, हित होगा तो उससे दूसरों को भी सुधार एवं हित की प्रेरणा मिलेगी ही।
धर्म को स्व-पर की एकात्मकता के साथ जोड़ों। महावीर का यह मुख्य उपदेश सूत्र है कि व्यक्ति चिन्तन करे-"मैं अकेला नहीं हूं।" यह दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करने का सिद्धान्त है। जो दूसरे के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को भी अस्वीकार करता है। ध्यान रहे कि स्व और पर-अर्थात् मैं और अन्य दोनों के बीच जब एकात्मकता की अनुभूति होती है तब व्यक्ति अपने सुख के लिए दूसरे के सुख में बाधा नहीं पहुंचाता, दूसरों के हितों का हनन नहीं करता है। यह सत्र राजनीति, अर्थनीति. समाजनीति आदि का भी भला कर सकता है। प्र कूटनीति के प्रणेता चाणक्य ने भी इस सूत्र पर बल देते हुए कहा था-समाज में तुम अकेले ही मत खाओ, दूसरों को भी उनका हिस्सा दो। संविभाग के सूत्र से ही शायद यह सूत्र निकला हो। - धर्म को विज्ञान के साथ जोड़ों। धर्म आध्यात्मिकता का प्रतीक तो विज्ञान भौतिकता का प्रतीक माना जाता है-इस नाते धर्म को भौतिकता के साथ जोड़ों। भौतिकता के साथ यदि धर्म नहीं जुड़ा तो भौतिकता से मिलने वाली सुविधाएं तथा उससे प्राप्त होने वाले साधन व्यक्ति एवं पूरे विश्व के लिए प्रलयंकारी हो जायेंगे जैसा कि आज का आतंककारी वातावरण है। यदि सुख-शान्ति का जीवन जीना है तो भौतिकता के साथ धर्म रूप ईमानदारी, नैतिकता और प्रामाणिकता को जोड़ना ही होगा। इसी प्रकार धर्म के साथ विज्ञान को जोड़ने का लाभ होगा कि आधारहीन विचारणाएं पनप नहीं पाएगी, विचार के साथ व्यवहार जुड़ेगा, अंध श्रद्धा के स्थान पर सच्ची आस्था विकसित होगी और आदर्श के साथ यथार्थ के जुड़ जाने से व्यक्ति एवं विश्व के कार्यकलापों में समरूपता आएगी। विज्ञान पूर्णतः या तथ्यात्मक होता है और धर्म भावनात्मक । तथ्य भावना के बिना अपरिपक्व तो भावना तथ्य के बिना अपुष्ट है। - धर्म को समता के साथ जोड़ो। यह समता सर्वांगीण और सर्वव्यापी होगी। समता का सामाजिकव्यावहारिक प्रयोग निर्देश देगा कि तुम अकेले ही सब कुछ मत करो। भूमि पर, धन पर और सत्ता पर तुम अकेले ही अपना अधिकार मत जमाओ, क्योंकि इन सब पर दूसरों का भी अधिकार है। समता का जब आत्मिक प्रयोग शुरू किया जायेगा तो यह सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। सामायिक के अनुष्ठान को जो समझ लेता है। जहां सामायिक है, वहां अध्यात्म है, वहां जाति-पांती, सम्प्रदाय-पंथ बहुत नीचे रह जाते हैं-मानवीय समरूपता ही समक्ष में रहती है। समाज को संगठित बनाने के लिए आवश्यकता होती है पवित्र मन की, मुक्त एवं अप्रतिबद्ध व्यक्ति की, जो समता से ही पूरी हो सकती है। समतावान् और अप्रतिबद्ध व्यक्ति शान्ति-साधक बन जाता है। ___ धर्म को अन्ततोगत्वा मानव जीवन के साथ जोडो। यही धर्म का साध्य है। धर्म से यदि मानव जीवन ही प्रभावित नहीं होता तो वह धर्म की विफलता होगी-धर्म अप्रासंगिक बन जायेगा, किन्तु धर्म कदापि न अप्रासंगिक होता है और न है। अपेक्षा यही है कि जीवन के साथ सच्चे धर्म को जोड़ो-धर्म के नाम पर चल रहे कट्टरवाद, वितंडावाद और पाखंड को नहीं। धर्म को थोपिये मतव्यक्ति को प्रतिबद्ध मत बनाइये। जरूरी है उसके विवेक को, उसकी आध्यात्मिक चेतना को
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