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________________ सुचरित्रम् धर्म चरित्र की उत्कृष्टता है और अधर्म है चरित्र का कलंक। कर्तव्य पालन में धर्म का प्रकाशन होता है और उसके विपरीत पाप कर्मों में अधर्म प्रकट होता है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति वह है जिसे कर्तव्यपालन का दृढ अभ्यास है। जो व्यक्ति संकट के क्षणों में भी अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करता. उससे बढ़ कर विश्व में कौन धर्मशील हो सकता है? कर्त्तव्य और धर्म में परस्पर जो सम्बन्ध है वह तार्किक नहीं। जो कर्तव्यों का दृढ़ अभ्यास कर लेता है उसके लिए धार्मिक प्रवृत्तियां सहज हो जाती है। अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे प्रत्येक कर्त्तव्य धर्म में परिणत हो जाता है। कर्त्तव्य उस विशेष कर्म की ओर संकेत करता है, जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। कर्त्तव्य करने के सतत अभ्यास से धर्म की विशुद्धि बढ़ती है। वस्तुतः धर्म और कर्त्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं-एक दूसरे के विघटक नहीं, क्योंकि धर्म का कर्त्तव्य में प्रकाशन होता है और कर्त्तव्य में धर्म की अभिव्यक्ति होती है। धर्म के संबंध में एक पाश्चात्य विद्वान् का कथन है-धर्म मनुष्य के मन की दुष्प्रवृत्तियों और वासनाओं को नियंत्रित करने एवं आत्मा के समग्र शुभ का लाभ प्राप्त करने का एक अभ्यास है। इस कथन का भी आशय यही है कि धर्म आत्मा की एक स्वाभाविक वृत्ति का नाम है। यह स्वाभाविक वृत्ति परिपुष्ट होती है, कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ, अत: नई सर्वहितकारी छवि धर्म को देने के लिए उसे कर्त्तव्य के साथ जोड़िए। ___धर्म को कर्तव्य के साथ जोड़ों। कर्त्तव्यनिष्ठा को धर्म मानने से मानव में उत्तरदायित्व की वृत्ति एवं प्रवृत्ति विकसित होगी। धर्म को चरित्र के साथ जोड़ों। वस्तुतः कर्त्तव्यनिष्ठा से उत्पन्न उत्तरदायित्व की भावना मनुष्य के चरित्र का गठन करती है-उससे उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। चरित्र है क्या? यही कि अशुभता की वृत्ति-प्रवृत्तियों से निकल कर शुभता के क्षेत्र में सर्वभावेन प्रवृत्त होना अर्थात् अपने को अशुभ विचार, वचन, व्यवहार से अलग करो, दूसरों को भी अलग करने का यत्न करो तथा स्व सहित पर को शुभता के रंग में रंगने का कल्याणकारक कार्य करो। इससे बढ़ कर धर्म का स्वस्थ . आचरण अन्य क्या हो सकता है? धर्म और चरित्र को एकरूप बना दो अपनी प्रत्येक गतिविधि में, फिर देखों कि धर्म की वह छवि कितनी प्रभावोत्पादक बन जाती है और व्यक्तित्व को परोपकार का कितना बड़ा माध्यम सिद्ध कर देती है? धर्म को आन्तरिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ों-आध्यात्मिक चेतना के साथ जोड़ों। इसी से यथार्थता का बोध हो सकेगा। अध्यात्म की गहराई में जाना सरल कार्य नहीं, अतः सामान्य जन के लिए अध्यात्म का सतही रूप भी काफी लाभदायक हो सकता है कि उसे आत्मानुभूति हो-वह आत्मा की आवाज को सुन-समझ सके। व्यक्ति में मोटे तौर पर ही सही, जब आत्मबल की सृष्टि होती है तो उसकी जीवनशैली में एक नयापन आ जाता है जो उसे सबके प्रति संवेदनशील बना देता है। तब वह सबके हित के बारे में सोचता है। धर्म को आत्महित एवं लोकहित दोनों के साथ जोड़ों। जो एक सामान्य धारणा है कि धर्म से आत्महित ही साधा जा सकता है, वह भ्रमपूर्ण है। सच यह है कि आत्महित से पहले धर्म लोकहित का प्रधान साधन है। जितने भी धर्म सिद्धान्त हैं, उनके स्वस्थ पालन का तत्काल लाभ पालनकर्ता के 436
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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