SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् । जगाना। फिर वह स्वयं परख कर लेगा कि क्या सत्य है और क्या मिथ्या? अप्रतिबद्ध मस्तिष्क वाला व्यक्ति केवल प्रचलित धारणाओं पर ही नहीं चलता, अपितु स्वयं भी अपनी आत्मानुभूति एवं सामाजिक प्रतीति के आधार पर नई स्वस्थ धारणाएं गढ़ भी सकता है। वह अपने आत्मबल से उन धारणाओं का उपयोग भी कर सकता है तथा प्रचलन को लोकप्रिय भी बना सकता है। समूचे मानव जीवन के साथ जब धर्म जुड़ेगा तो मानव नित प्रति चिन्तन करेगा कि वह कौन है, कहां है तथा उसकी चेतना किस दिशा व दशा में कार्य कर रही है? यह चिन्तन उसे दृष्टा बनायेगा और दृष्टा ही सृष्टा बनता है। - क्या ऐसे धर्म और उसका प्रचार-प्रसार करने वाली सम्प्रदायों की छवि व्यक्ति से लेकर विश्व तक को अपनी शुभ प्रेरणाओं से अनुप्राणित नहीं बना देगी? चरित्रशीलता ही धर्म और नीति पर चढ़े मैल को धो सकेगी: __ आज तक दुनिया में जब-जब धर्म के असली मर्म को समझे बिना धर्म के नाम पर जितनी धींगामस्ती अथवा खंडन-मंडन, झगड़े, विवाद, दंगे-फसाद हुए हैं या हो रहे हैं, तब-तब वे बेमिसाल रहे हैं। यही कारण है कि नामवर धर्मों ने जोड़ने की बजाय लोगों को तोड़ा ही तोड़ा है। वास्तव में देखें तो वह सब धर्म ही कहां था? धर्म के यथार्थ स्वरूप के बारे में कई परिभाषाओं की चर्चा की जा चुकी है, जिनमें 'वत्थु सहावो धम्मो', धारयते इति धर्मः' आदि सम्मिलित है। धर्म का अंग्रेजी शब्द रिलीजन (Religion) लेटिन के रिलीगेरे (Religere) शब्द से बना है जिसका अर्थ है To Restrain यानी कि संयत होना, रोकना। इन सभी परिभाषाओं में मानवता की प्राप्ति को ही वास्तविक धर्म कहा गया है। सवाल है कि फिर भी धर्म के नाम पर इतनी धींगामस्ती क्यों? यह है लेबल वाले धर्मों यानी मतों, पंथों, सम्प्रदायों के कारण। नामवर धर्मों के उपदेशों में बातें सब अच्छी-अच्छी की जाती है, लेकिन अपने-अपने नाम और प्रभाव विस्तार का उद्देश्य ही सबसे ऊपर रहता है, क्योंकि असलियत धर्म गुरुओं की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के नीचे दबा दी जाती है। जैसे । राजनेता को वोट बटोरने के लिए उचित-अनुचित सब करना पड़ता है, शायद उससे भी अधिक उचित-अनुचित धर्मगुरुओं को अपने लिए अंध श्रद्धालु भक्त बटोरने के लिए करना पड़ता होगा। अतः आज धर्म के नाम पर प्रचलित पूरे वातावरण में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। - धर्म के साथ नीति जुड़ी हुई होती है यानी कि मानवता धर्म है तो उसे प्राप्त करने के जो साधन हैं, उन्हें नीति का नाम दिया जा सकता है। धर्म मानवता का सिद्धान्त है-साध्य है तो उस सिद्धान्त तक पहुंचाने का व्यावहारिक मार्ग बताती है नीति । नीति स्वस्थ हो तभी सच्चे धर्म तक पहुंचा जा सकता है। अभिप्राय यह कि मनुष्य अपने मूल स्वभाव मनुष्यता को पूर्णांश में प्राप्त करे-यह धर्म है। उस धर्म तक पहुंचाने वाली नीतियां या नैतिकता बहुरूपी हो सकती है। ये रूप हैं-धर्म के नाम से पहचाने जाने वाले धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि, लोकतंत्र, प्रगतिशील विचारधाराएं, आर्थिक नीतियां और स्वस्थ समाज निर्माण के उपाय आदि, क्योंकि इन सभी साधन-रूपों की कसौटी है कि मनुष्य के चरण अपने ढके-दबे मानवीय मूल्यों को गुणवत्ता की चमक देने की ओर बढ़ रहे हैं या नहीं? इसी दृष्टिकोण से आज धर्म तथा नीति के मूल स्वरूप पर जो विकृतियों के मैल की परतें चढ़ 438
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy